Friday, November 26, 2010

Geeta chapter - 3.3

भक्तजनों इस बार का अंक में कुछ दिनों के अंतराल में ही लिख रहा हु, इसलिए जिन्होंने पिछला अंक नहीं पढ़ा हो, वे उसे पढ़ ले. इस बार के अंक में हम एक ज्ञानी के एक अज्ञानी के प्रति कर्त्तव्य के बारे में चर्चा करेंगे.


सकता कर्मन्यविद्वान्सो यथा कुर्वन्ति भारत
कुर्याद विद्वान्स्त्थासक्ताश चिकिर्शुर्लोकासंग्रहम !!!
MEANING : हे अर्जुन, जिस तरह एक अज्ञानी मोह के वश में होकर कर्म करता हे, उसी तरह एक ज्ञानी को बिना मोह के इस दुनिया की भलाई के लिए कर्म करने चाहिए.


न बुद्धिभेदम जन्येद्ग्यनाम कर्म्संगिनाम
जोश्येत्सर्व्कार्मानी विद्वान् युक्तः समचरण !!!
MEANING : एक ज्ञानी को एक अज्ञानी की सोच-समझ को भटकाना नहीं चाहिए. उसे खुद अपने वैदिक कर्म करते हुए उन अज्ञानी लोगो को भी अपने कर्म अपनी मर्ज़ी के हिसाब से करने देना चाहिए.


प्रक्रतेह क्रियामानानी गुनेह कर्मणि सर्वशः
अहंकर्विमुधात्मा कर्ताहमिति मन्यते !!!
MEANING : सारे कर्म इन्द्रियों दुआरा होते हे. लेकिन एक अज्ञानी जो अपने आपको शरीर मानता हे, सोचता हे की वाही ये कर्म कर रहा हे.


प्रक्रतेर्गुन्सम्मुधाह सज्जन्ते गुन्कर्मासु
तन्क्रत्स्नाविदो मंदन क्रत्स्नाविन विचालयेत !!!
MEANING : अपने आपको शरीर मानकर वे अज्ञानी फल की इच्छा में लिप्त रहते हे. एक ज्ञानी को उन अज्ञानी लोगो के काम में बाधा नहीं डालनी चाहिए. उन्हें रोकना नहीं चाहिए.


भक्तजनों पहला श्लोक यह बताता हे की एक ज्ञानी को दुनिया की चिंता में इतना नहीं डूबना चाहिए की वो अपने कर्त्तव्य ही भूल जाये. अज्ञानी लोगो को अपने हल पर छोड़ कर उसे अपने वैदिक कर्त्तव्य को निभाते रहना चाहिए. जिस तरह से एक अज्ञानी मोह वश कोई कर्म करता हे, उसी तरह एक ज्ञानी को कर्त्तव्य वश अपने कर्म करते रहना चाहिए. आपको लगेगा की यह बात तो बिलकुल गलत हे. अगर अज्ञानी अपनी अज्ञानता की वजह से अपना नुकसान कर रहा हे तो क्या एक ज्ञानी का यह फ़र्ज़ नहीं बनता की उसे समझाए और सही रास्ता दिखाए. इसी का जवाब दुसरे श्लोक में मिलता हे, श्री कृष्ण कहते हे की अज्ञानी को समझाना तो चाहिए पर उसे इतना नहीं उलझाना चाहिए (confuse) नहीं करना चाहिए की उसे सही और गलत समझमे ही नहीं आये और वो धोबी के कुत्ते की तरह न घर का रहे न घाट का. मतलब वो न दुनिया के सुख भोग कर सके न ज्ञान प्राप्त कर पाए.

कई बार ऐसा होता हे की मोह त्यागने की बात को हम गलत तरीके से समझ लेते हे और अपनी नौकरी छोड़ कर कोई आश्रम चले जाते हे, जाने के बाद पता चलता हे की वहा की ज़िन्दगी बहार की ज़िन्दगी से कोई बहुत अलग नहीं हे, पर वहा के रहन सहन में हम अपने आपको ADJUST नहीं कर पाते और वहा भी नहीं रह पाते और नौकरी तो छुट ही चुकी होती हे. कई लोग अपनी सारी दौलत दान कर देते हे, बाद में उस ऐशो-आराम के बिना रह नहीं पाते. तो कई लोग अपनी इच्छा को दबाना ही अध्यात्म समझते हे. एक ज्ञानी को इस बात का ध्यान रखना चाहिए की कही वो अज्ञानी लोग उसकी बात का ऐसा कोई मतलब तो नहीं निकल रहे. यही बात दुसरे श्लोक में समझाई गयी हे. मुझे वैभव-जी की याद आती हे, उन्होंने मुझसे आश्रम जाने की बात कही थी और मैंने उन्हें मना कर दिया था. वैभव-जी अगर आप इसे पढ़ रहे हे तो आप समझ गए होंगे की आपके लिए क्या सही-गलत हे.

आगे श्री कृष्ण कहते हे की अज्ञानी अपने को शरीर मानते हे इसलिए वे यह समझते हे की वही करता हे, और वे यही समझकर कर्म करते रहते हे. एक ज्ञानी को उनके इस कर्म में बाधा नहीं डालनी चाहिए. वरना मोक्ष प्राप्ति तो दूर वे अपने आप का भी सही ख्याल नहीं रख पाएंगे और बेकार में ही दुखी होते रहेंगे.

भक्तजनों आपको इस बात को अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए की पहले अपने जीवन को आराम से बिताने का इन्तेजाम कर के ही त्याग, आश्रम जैसे कदम उठाने चाहिए. जोश-जोश में आप शुरू तो कर देंगे लेकिन बाद में बहुत पछतायेंगे.
जैसा में हमेशा कहता हु, छोटी-छोटी शुरुवात आपका बहुत भला करेगी. कोई नुकसान का डर भी नहीं रहेगा.


जय श्री कृष्ण !!!

Tuesday, November 23, 2010

Geeta chapter - 3.2

देवन भवयातानें ते देवा भावयन्तु वहः
परस्परम भावयन्तः श्रेयः परम्वाप्स्यथा !!!
MEANING : उस परम इश्वर को समर्पित करने से देव तृप्त होते हे, और देव तृप्त होंगे तो वे तुम्हे तृप्त कर देंगे और तुम उस परमात्मा की कृपा के पात्र बनोगे.


इश्तन भोगन ही वो देवा दास्यन्ते याग्यभावितः
तैर्दात्तान्प्रदायेभ्यो यो भूंकते स्टें एव सहः !!!
MEANING : देव तुम्हारे भोग से और समर्पण से तृप्त होते हैं और तुम्हे वे सारी सुविधा उपलब्ध करवाते हैं जो तुम्हारी रोज़ मर्र्रा जीवन के लिए ज़रूरी हे. जो व्यक्ति इन सारी सुविधा का लाभ तो लेता हे मगर देव को तृप्त नहीं करता, वो व्यक्ति निश्चित ही चोर हे.


याग्यशिश्ताशिनाह संतो मुच्यन्ते सर्वकिलिम्शैः
भुज्यनते ते त्वघं पापा ये पचान्त्यात्मकरानत !!!
MEANING : जो व्यक्ति सात्विक भोजन पहले इश्वर को भोग लगाकर उसके बाद ग्रहण करता हे, वो व्यक्ति सारे पाप से मुक्त हो जाता हे, लेकिन वो व्यक्ति जो भोजन सिर्फ खुद के ग्रहण करने के लिए बनाता हे, वो व्यक्ति भोजन के रूप में केवल पाप ही ग्रहण कर रहा होता हे.


आन्नद भवन्ति भूटानी पर्जन्यादान्न्सम्भावः
यज्ञाद भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः !!!
MEANING : अन्न से जीव उत्पन्न होते हे, और अन्न उत्पन्न होता हे वर्षा से. वर्षा होती हे इश्वर को भोग लगने से, और भोग लगता हे वैदिक कर्म करने से.


एवं प्रवर्तितं चक्रम नानुवार्त्यातिः यह
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पर्थ सा जीवति !!!
MEANING : हे अर्जुन, जो व्यक्ति वेदों में लिखे उपाय को नहीं अपनाता हे, वो व्यक्ति अपना जीवन मोह माया में लिप्त कर पाप करते हुए बर्बाद कर लेता हे.


तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचार
असक्तो हचरण कर्म परमाप्नोति पुरुषः !!!
MEANING : इसलिए बिना किसी मोह के, बिना किसी रूकावट के, अपने कर्त्तव्य को पूरा करो, क्योंकि उसी से तुम्हे परमात्मा की प्राप्ति होगी.


भक्तजनों पिछले अंक से चर्चा आगे बढ़ाते हे, आज के श्लोक वे हे जिनमे श्री कृष्ण उन वैदिक कर्म के बारे में बता रहे हे जिसमे कर्म को परमात्मा को समर्पित करना होता हे. देव तृप्ति के बारे में इसमें चर्चा की गयी हे. यह बातें आपको यकीन करने लायक नहीं लगेंगी. उन बातो को समझने के लिए थोडा विस्तार में जाना पड़ेगा. कुछ बातें विश्वास पर निर्भर करती हैं और विश्वास न होने पर वे बाते बेतुकी लगेंगी. चलिए चर्चा आगे बढ़ाते हैं.


कृष्ण कह रहे हैं की हर कर्म को इश्वर को समर्पित कर देने से देव तृप्त होते हैं. और उनके तृप्त होने से वे हम जीवो को तृप्त करते हैं. अगले श्लोक में कहा गया हे की देव समर्पण और त्याग से तृप्त होते. ऐसा कहा जाता हे की धर्म इस्थापित रहने तक देव बलवान होते हे और धर्म का नाश होते होते देव कमजोर पड़ने लगते हे. यह बाते तो ज्ञानी ही समझ सकते हे की वर्षा देवो की वजह से कैसे होती हे. विज्ञानं कुछ और तरीका बताता हे वर्षा होने का. संत कहते हैं की यह धरती एक बड़े हवन कुंड का काम करती हे, सूरज उसमे अग्नि का काम करता हे, समुद्र का पानी जो भाप बनकर उड़ता हे वो एक तरह का भोग हे. में यह तो नहीं कह सकता की यह सही हे या नहीं, क्योंकि मैंने ऐसा किसी शास्त्र में नहीं पढ़ा हे. लेकिन एक बात सही हे की हर बात एक ही "pattern" से बनी हे. ज्योतिष में हस्त रेखा को पढने का तरीका भी इस धरती पर मौजूद पहाड़, समुद्र, जैसे बातों की ही तरह होता हे, उसी तरह आयुर्वेद भी शरीर को मंदिर मान कर ही बिमारी का इलाज तलाश करता हे. बड़े बड़े ज्ञानी जो कुण्डलिनी शक्ति के बारे में जानते हे, वेह तो यह दावा करते हे की शरीर और ब्रह्माण्ड एक ही तरीके से बनाये गए हैं. शारीर को समझ लिया तो ब्रह्माण्ड समझ लिया. इन बातो को देखते हुए हवन कुंड वाली बात सही भी लगती हे.

खैर बात श्री कृष्ण ने कही हे और हम वहां पर हमारा आधा अधुरा ज्ञान लेकर सही गलत का फैसला नहीं ले सकते. मैंने कई उधाहरण देखे हे जहाँ पर पितृ दोष से नुकसान हुआ हे और उनको तृप्त कर देने पर वो परेशानी दूर हो गयी. इस पर ज्यादा चर्चा नहीं करेंगे क्योंकि ये अन्धविश्वास सा लगेगा. अगर ऊपर लिखे श्लोक का मूल अर्थ समझने की कोशिश करे तो पाएंगे की कर्म को इश्वर को समर्पित करने के बारे में ही यह सारे श्लोक हे. इस पर हम पहले भी चर्चा कर चुके हैं. लेकिन इस बार यहाँ पर उसका पूरा तरीका बताया गया हे की इश्वर को कर्म समर्पित करने पर भी कैसे हमारा भला हो सकता हे. यही बात देव तृप्ति के माध्यम से बताई गयी हे. हम कर्म समर्पित करते जाये, जब तक हमारे बुरे कर्म भुगतना बाकि होंगे, तब तक दुःख उठाना पड़ेगा और जैसे ही उन कर्मो का फल ख़त्म हुआ, वैसे ही हम सुखी होने लग जायेंगे और यह सब देवो के माध्यम से होगा.

भक्तजनों, आपको यह बाते शायद अजीब लगे, लेकिन हमारे सारे वेद, पुराण और तो और दुसरे धर्म में भी यही सब कहा गया हे. बस हमारे वेदों में उसको विस्तार से बताया गया हे. कुछ बात होगी तभी तो यह सब कहा गया होगा. वर्ना जैसे हम विश्वास नहीं करते, वैसे उस ज़माने में भी कोई विश्वास नहीं करता इन बातो पर, लेकिन उन्होंने किया, तो कोई तो बात होगी. अन्धविश्वास तो इन २००० हज़ार सालो में आया हे जब लोग उन बातो का सही मतलब भूल गए और सिर्फ प्रथा निभाने के लिए बिना मतलब समझे कर्म करने लगे. वैसे भी हमारा क्या बिगड़ जायेगा अगर हम इन छोटी छोटी बातो का ध्यान रखे, हमारा भला नहीं भी हुआ तो कोई नुकसान भी तो नहीं हे. और अगर ये बाते सही हुई तो कितना भला होगा हम सब का.

भक्तजनों मुझे पूरा विश्वास हे इन बातो पर और मैंने कई बाते सही में होते हुए भी देखि हे, पर आप में से अगर कुछ लोगो को विश्वास नहीं हे तो यह सोचिये की यह सब करने से आपका कोई नुकसान नहीं हे.

अगले अंक में चर्चा आगे बढ़ाएंगे.


जय श्री कृष्ण !!!

Thursday, November 4, 2010

Geeta chapter - 3.1

भक्तजनों में आप लोगो से माफ़ी चाहता हु की इतने दिनों तक आप सब को इंतज़ार करना पड़ा. मुझे समय ही नहीं मिल पाया, नौकरी, घर और दुसरे काम में इतना व्यस्त हो गया की लिखने का समय ही नहीं मिला.
कृपया आगे कभी इस तरह की देरी हो तो मुझे माफ़ करदे.

आज से गीता का तीसरा अध्याय शुरू करते हे. आज जिन श्लोक की चर्चा होगी, वे श्लोक अर्जुन की मन कि इस्थिथि को समझायेंगे. इन श्लोक के बाद ही असली श्लोक की शुरुवात होगी. वैसे तो अर्जुन की जो इस्थिथि इसमें बताई गयी हे, वैसी इस्थिथि हम सबकी होती हे, या आप में से बहुत लोगो की हो गयी होगी अब तक गीता पढ़कर.


ज्यायसी चेत कर्मनास्ते माता बुद्धिर-जनार्धन
तट किम कर्मणि घोरे मम नियोजयासी केशव !!!
MEANING : हे केशव जब आप ये मानते हे की ज्ञान कर्म से बड़ा हे तो आप क्यों मुझे इस महा पाप वाले कर्म को करने को कह रहे हे.

व्यमिश्रेनेव वाक्येन बुद्धि मोहयसीव में
तदेकं वाद निश्चित्य एन श्रेयो-हमप्नुयम !!!

MEANING : आपकी अलग-अलग बाते सुनकर मुझे कुछ समझ में ही नहीं रहा हे. आप कोई एक बात बताये जो मेरे लिए निश्चित ही लाभदायक हो.

न कर्म्नाम्नार्म्भन नैष्कर्म्य पुरुशोश्नुते
न च संयास्नादेव सिद्धिम समधिगाछ्ती !!!
MEANING : कोई भी व्यक्ति वैदिक कर्त्तव्य को पूर्ण करे बिना अपने कर्म के फल से नहीं बच सकता और उन कर्त्तव्य को करने से कभी निपुणता नहीं आएगी.


ही कश्चित् शंमापी जातु तिष्ठात्याकर्म्कुत
कार्यते हवाशः कर्म सर्वाः प्रक्रतिजैर्गुनैः !!!
MEANING : कोई भी व्यक्ति अपने आप को कर्म से दूर नहीं रख सकता, एक पल के लिए भी नहीं. इस संसार की प्रकृति के कारण हर व्यक्ति हर पल कोई कोई कर्म करने के लिए मजबूर रहता हे.


नियतं कुरु तवं कर्म ज्यायो हकार्मनाह
शरिर्यत्रपी च ते न प्रसिद्ध्येद्कार्मानाह !!!
MEANING : तुम्हे अपने वैदिक कर्त्तव्य निभाने चाहिए क्योंकि कर्म करने से अच्छा कर्म करना हे, कर्म नहीं करोगे तो अपने शरीर की देख-भाल तक नहीं कर पाओगे.


हम में से बहुत लोग यह सोचते होगे की कर्म करने से ही तो पाप लगेगा, तो क्यों कर्म करना ही छोड़ दे. और वैसे भी श्री कृष्ण कर्म से बढ़कर ज्ञान को बताते हे, तो फिर कर्म को करने में ही भलाई हे. रहेगा बांस और बजेगी बांसुरी. दूसरी बात यह की गीता के पहले अध्याय से तीसरे अध्याय तक जो कुछ भी पढ़ा, उस से हमे यह लगता हें की कई बाते एक दुसरे के विपरीत हे, कभी एक बात सही बताई जाती हे तो कभी दूसरी बात सही बता दी जाती हे. समझ ही नहीं आता हे की सही क्या हे और गलत क्या. इसी का जवाब हमे इन श्लोक में दिया जा रहा हे.

अर्जुन पूछ रहे हे की जब ज्ञान कर्म से बड़ा हे तो फिर मुझे क्यों पाप कर्म करने को कह रहे हे. इस तरह की अलग अलग बाते सुनकर मुझे कुछ समझ ही नहीं रहा हे. इसे समझने के लिए आपको यह समझना होगा की इस सृष्टि का निर्माण कैसे हुआ. सबसे पहले हे चेतना, सर्वत्र चेतना हे, और यही चेतना उर्जा का रूप धारण करती हे इस सृष्टि का निर्माण करने के लिए. और यही उर्जा अणु रूप धारण करती हें सृष्टि को आकार देने के लिए. इस तरह सृष्टि का निर्माण होता हे, अणु अलग अलग तरह से एक दुसरे से जुड़कर अलग अलग प्रकार के जीव और वस्तु बनाते हे, जीव में चेतना होने से उसमे जान होती हे और वस्तु में जड़ चेतना होने से उसमे जान नहीं होती. लेकिन यह ज़रूर समझा जा सकता हे की चेतना से उर्जा और उर्जा से अणु का निर्माण होता हे. वैज्ञानिक शोध से पता चला हे की अणु के कई हज़ार-लाख हिस्से करने पर भी उसका कोई ठोस स्वरुप नहीं मिल पाया हे. अणु को ले तो उसमे नयूत्रण, प्रोटोन, एलेक्ट्रों होता हे. और उनके बिच में काफी सारी खाली जगह होती, जब इनके भी कई हिस्से किये जाते हे तो पता चलता हे इनमे भी कई सारा हिस्सा खाली हे और अब तक कभी कोई ठोस हिस्सा मिला ही नहीं हे. आखिर में निष्कर्ष ये निकला हे की उर्जा एक जगह पर एकत्र होती हे और अपने घेराव के कारण इतनी सबल होती हे की उसे अलग करना बहुत मुश्किल हो जाता हे और बस यही उर्जा का समूह हमे अणु जैसा प्रतीत होता हे, असल में वो केवल उर्जा ही होती हे.

वैज्ञानिक अणु और उर्जा का सम्बन्ध तो जान पाए लेकिन उर्जा और चेतना का सम्बन्ध जानना अभी बाकि हे. इसमें चेतना ही ज्ञान स्वरुप हे, इसलिए वो सबसे बड़ी, और कर्म केवल अणु रूप के होने पर ही संभव हे इसलिए वो ज्ञान से छोटा. लेकिन यह भी सही हे की हम अणु रूप में चुके हे और इस प्रकृति का हिस्सा बन चुके हे, इसलिए हमे इस प्रकृति के खिलाफ जाकर कभी ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकेगा. और यही बात श्री कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हे की ज्ञान बड़ा तो हे लेकिन हम अणु प्रकृति में होने के कारण कर्म के बिना उस ज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकते. ज्ञान तो बहुत दूर की बात हे हम तो हमारे शरीर की देख-भाल भी नहीं कर पाएंगे अगर कर्म नहीं किया तो. लेकिन हर कर्म का कोई कोई फल हे इसलिए वैदिक कर्म करो जिसका फल ज्ञान हे. इसीलिए वैदिक कर्म का इतना महत्व हे.

कर्म को सही तरीके से करने में बहुत श्रद्धा और विश्वास का होना ज़रूरी हे, इसलिए हमे अच्छे कर्म यदा कदा करते रहना चाहिए ताकि कुछ अच्छाई तो हम में शेष रहे. हम इश्वर के कुछ करीब तो सके. जैसे रोज़ सुबह ११ बार मंत्र जाप करना या खाने से पहले इश्वर को भोग लगाना जैसे छोटे छोटे काम आपका बहुत भला करेंगे.

भक्तजनों अब आप समझ गए होंगे की श्री कृष्ण कोई दो विपरीत बात नहीं कर रहे, बल्कि हमारी समझ इतनी नहीं हे की उनकी बाते एक-दम से समझ सके.

आगे के श्लोक और भी ज्ञान वरदक होंगे, जिसकी हम अगले अंक में चर्चा करेंगे.

आप सबको दीपावली कि शुभ कामनाएं.

जय श्री कृष्ण !!!