Friday, November 26, 2010

Geeta chapter - 3.3

भक्तजनों इस बार का अंक में कुछ दिनों के अंतराल में ही लिख रहा हु, इसलिए जिन्होंने पिछला अंक नहीं पढ़ा हो, वे उसे पढ़ ले. इस बार के अंक में हम एक ज्ञानी के एक अज्ञानी के प्रति कर्त्तव्य के बारे में चर्चा करेंगे.


सकता कर्मन्यविद्वान्सो यथा कुर्वन्ति भारत
कुर्याद विद्वान्स्त्थासक्ताश चिकिर्शुर्लोकासंग्रहम !!!
MEANING : हे अर्जुन, जिस तरह एक अज्ञानी मोह के वश में होकर कर्म करता हे, उसी तरह एक ज्ञानी को बिना मोह के इस दुनिया की भलाई के लिए कर्म करने चाहिए.


न बुद्धिभेदम जन्येद्ग्यनाम कर्म्संगिनाम
जोश्येत्सर्व्कार्मानी विद्वान् युक्तः समचरण !!!
MEANING : एक ज्ञानी को एक अज्ञानी की सोच-समझ को भटकाना नहीं चाहिए. उसे खुद अपने वैदिक कर्म करते हुए उन अज्ञानी लोगो को भी अपने कर्म अपनी मर्ज़ी के हिसाब से करने देना चाहिए.


प्रक्रतेह क्रियामानानी गुनेह कर्मणि सर्वशः
अहंकर्विमुधात्मा कर्ताहमिति मन्यते !!!
MEANING : सारे कर्म इन्द्रियों दुआरा होते हे. लेकिन एक अज्ञानी जो अपने आपको शरीर मानता हे, सोचता हे की वाही ये कर्म कर रहा हे.


प्रक्रतेर्गुन्सम्मुधाह सज्जन्ते गुन्कर्मासु
तन्क्रत्स्नाविदो मंदन क्रत्स्नाविन विचालयेत !!!
MEANING : अपने आपको शरीर मानकर वे अज्ञानी फल की इच्छा में लिप्त रहते हे. एक ज्ञानी को उन अज्ञानी लोगो के काम में बाधा नहीं डालनी चाहिए. उन्हें रोकना नहीं चाहिए.


भक्तजनों पहला श्लोक यह बताता हे की एक ज्ञानी को दुनिया की चिंता में इतना नहीं डूबना चाहिए की वो अपने कर्त्तव्य ही भूल जाये. अज्ञानी लोगो को अपने हल पर छोड़ कर उसे अपने वैदिक कर्त्तव्य को निभाते रहना चाहिए. जिस तरह से एक अज्ञानी मोह वश कोई कर्म करता हे, उसी तरह एक ज्ञानी को कर्त्तव्य वश अपने कर्म करते रहना चाहिए. आपको लगेगा की यह बात तो बिलकुल गलत हे. अगर अज्ञानी अपनी अज्ञानता की वजह से अपना नुकसान कर रहा हे तो क्या एक ज्ञानी का यह फ़र्ज़ नहीं बनता की उसे समझाए और सही रास्ता दिखाए. इसी का जवाब दुसरे श्लोक में मिलता हे, श्री कृष्ण कहते हे की अज्ञानी को समझाना तो चाहिए पर उसे इतना नहीं उलझाना चाहिए (confuse) नहीं करना चाहिए की उसे सही और गलत समझमे ही नहीं आये और वो धोबी के कुत्ते की तरह न घर का रहे न घाट का. मतलब वो न दुनिया के सुख भोग कर सके न ज्ञान प्राप्त कर पाए.

कई बार ऐसा होता हे की मोह त्यागने की बात को हम गलत तरीके से समझ लेते हे और अपनी नौकरी छोड़ कर कोई आश्रम चले जाते हे, जाने के बाद पता चलता हे की वहा की ज़िन्दगी बहार की ज़िन्दगी से कोई बहुत अलग नहीं हे, पर वहा के रहन सहन में हम अपने आपको ADJUST नहीं कर पाते और वहा भी नहीं रह पाते और नौकरी तो छुट ही चुकी होती हे. कई लोग अपनी सारी दौलत दान कर देते हे, बाद में उस ऐशो-आराम के बिना रह नहीं पाते. तो कई लोग अपनी इच्छा को दबाना ही अध्यात्म समझते हे. एक ज्ञानी को इस बात का ध्यान रखना चाहिए की कही वो अज्ञानी लोग उसकी बात का ऐसा कोई मतलब तो नहीं निकल रहे. यही बात दुसरे श्लोक में समझाई गयी हे. मुझे वैभव-जी की याद आती हे, उन्होंने मुझसे आश्रम जाने की बात कही थी और मैंने उन्हें मना कर दिया था. वैभव-जी अगर आप इसे पढ़ रहे हे तो आप समझ गए होंगे की आपके लिए क्या सही-गलत हे.

आगे श्री कृष्ण कहते हे की अज्ञानी अपने को शरीर मानते हे इसलिए वे यह समझते हे की वही करता हे, और वे यही समझकर कर्म करते रहते हे. एक ज्ञानी को उनके इस कर्म में बाधा नहीं डालनी चाहिए. वरना मोक्ष प्राप्ति तो दूर वे अपने आप का भी सही ख्याल नहीं रख पाएंगे और बेकार में ही दुखी होते रहेंगे.

भक्तजनों आपको इस बात को अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए की पहले अपने जीवन को आराम से बिताने का इन्तेजाम कर के ही त्याग, आश्रम जैसे कदम उठाने चाहिए. जोश-जोश में आप शुरू तो कर देंगे लेकिन बाद में बहुत पछतायेंगे.
जैसा में हमेशा कहता हु, छोटी-छोटी शुरुवात आपका बहुत भला करेगी. कोई नुकसान का डर भी नहीं रहेगा.


जय श्री कृष्ण !!!

Tuesday, November 23, 2010

Geeta chapter - 3.2

देवन भवयातानें ते देवा भावयन्तु वहः
परस्परम भावयन्तः श्रेयः परम्वाप्स्यथा !!!
MEANING : उस परम इश्वर को समर्पित करने से देव तृप्त होते हे, और देव तृप्त होंगे तो वे तुम्हे तृप्त कर देंगे और तुम उस परमात्मा की कृपा के पात्र बनोगे.


इश्तन भोगन ही वो देवा दास्यन्ते याग्यभावितः
तैर्दात्तान्प्रदायेभ्यो यो भूंकते स्टें एव सहः !!!
MEANING : देव तुम्हारे भोग से और समर्पण से तृप्त होते हैं और तुम्हे वे सारी सुविधा उपलब्ध करवाते हैं जो तुम्हारी रोज़ मर्र्रा जीवन के लिए ज़रूरी हे. जो व्यक्ति इन सारी सुविधा का लाभ तो लेता हे मगर देव को तृप्त नहीं करता, वो व्यक्ति निश्चित ही चोर हे.


याग्यशिश्ताशिनाह संतो मुच्यन्ते सर्वकिलिम्शैः
भुज्यनते ते त्वघं पापा ये पचान्त्यात्मकरानत !!!
MEANING : जो व्यक्ति सात्विक भोजन पहले इश्वर को भोग लगाकर उसके बाद ग्रहण करता हे, वो व्यक्ति सारे पाप से मुक्त हो जाता हे, लेकिन वो व्यक्ति जो भोजन सिर्फ खुद के ग्रहण करने के लिए बनाता हे, वो व्यक्ति भोजन के रूप में केवल पाप ही ग्रहण कर रहा होता हे.


आन्नद भवन्ति भूटानी पर्जन्यादान्न्सम्भावः
यज्ञाद भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः !!!
MEANING : अन्न से जीव उत्पन्न होते हे, और अन्न उत्पन्न होता हे वर्षा से. वर्षा होती हे इश्वर को भोग लगने से, और भोग लगता हे वैदिक कर्म करने से.


एवं प्रवर्तितं चक्रम नानुवार्त्यातिः यह
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पर्थ सा जीवति !!!
MEANING : हे अर्जुन, जो व्यक्ति वेदों में लिखे उपाय को नहीं अपनाता हे, वो व्यक्ति अपना जीवन मोह माया में लिप्त कर पाप करते हुए बर्बाद कर लेता हे.


तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचार
असक्तो हचरण कर्म परमाप्नोति पुरुषः !!!
MEANING : इसलिए बिना किसी मोह के, बिना किसी रूकावट के, अपने कर्त्तव्य को पूरा करो, क्योंकि उसी से तुम्हे परमात्मा की प्राप्ति होगी.


भक्तजनों पिछले अंक से चर्चा आगे बढ़ाते हे, आज के श्लोक वे हे जिनमे श्री कृष्ण उन वैदिक कर्म के बारे में बता रहे हे जिसमे कर्म को परमात्मा को समर्पित करना होता हे. देव तृप्ति के बारे में इसमें चर्चा की गयी हे. यह बातें आपको यकीन करने लायक नहीं लगेंगी. उन बातो को समझने के लिए थोडा विस्तार में जाना पड़ेगा. कुछ बातें विश्वास पर निर्भर करती हैं और विश्वास न होने पर वे बाते बेतुकी लगेंगी. चलिए चर्चा आगे बढ़ाते हैं.


कृष्ण कह रहे हैं की हर कर्म को इश्वर को समर्पित कर देने से देव तृप्त होते हैं. और उनके तृप्त होने से वे हम जीवो को तृप्त करते हैं. अगले श्लोक में कहा गया हे की देव समर्पण और त्याग से तृप्त होते. ऐसा कहा जाता हे की धर्म इस्थापित रहने तक देव बलवान होते हे और धर्म का नाश होते होते देव कमजोर पड़ने लगते हे. यह बाते तो ज्ञानी ही समझ सकते हे की वर्षा देवो की वजह से कैसे होती हे. विज्ञानं कुछ और तरीका बताता हे वर्षा होने का. संत कहते हैं की यह धरती एक बड़े हवन कुंड का काम करती हे, सूरज उसमे अग्नि का काम करता हे, समुद्र का पानी जो भाप बनकर उड़ता हे वो एक तरह का भोग हे. में यह तो नहीं कह सकता की यह सही हे या नहीं, क्योंकि मैंने ऐसा किसी शास्त्र में नहीं पढ़ा हे. लेकिन एक बात सही हे की हर बात एक ही "pattern" से बनी हे. ज्योतिष में हस्त रेखा को पढने का तरीका भी इस धरती पर मौजूद पहाड़, समुद्र, जैसे बातों की ही तरह होता हे, उसी तरह आयुर्वेद भी शरीर को मंदिर मान कर ही बिमारी का इलाज तलाश करता हे. बड़े बड़े ज्ञानी जो कुण्डलिनी शक्ति के बारे में जानते हे, वेह तो यह दावा करते हे की शरीर और ब्रह्माण्ड एक ही तरीके से बनाये गए हैं. शारीर को समझ लिया तो ब्रह्माण्ड समझ लिया. इन बातो को देखते हुए हवन कुंड वाली बात सही भी लगती हे.

खैर बात श्री कृष्ण ने कही हे और हम वहां पर हमारा आधा अधुरा ज्ञान लेकर सही गलत का फैसला नहीं ले सकते. मैंने कई उधाहरण देखे हे जहाँ पर पितृ दोष से नुकसान हुआ हे और उनको तृप्त कर देने पर वो परेशानी दूर हो गयी. इस पर ज्यादा चर्चा नहीं करेंगे क्योंकि ये अन्धविश्वास सा लगेगा. अगर ऊपर लिखे श्लोक का मूल अर्थ समझने की कोशिश करे तो पाएंगे की कर्म को इश्वर को समर्पित करने के बारे में ही यह सारे श्लोक हे. इस पर हम पहले भी चर्चा कर चुके हैं. लेकिन इस बार यहाँ पर उसका पूरा तरीका बताया गया हे की इश्वर को कर्म समर्पित करने पर भी कैसे हमारा भला हो सकता हे. यही बात देव तृप्ति के माध्यम से बताई गयी हे. हम कर्म समर्पित करते जाये, जब तक हमारे बुरे कर्म भुगतना बाकि होंगे, तब तक दुःख उठाना पड़ेगा और जैसे ही उन कर्मो का फल ख़त्म हुआ, वैसे ही हम सुखी होने लग जायेंगे और यह सब देवो के माध्यम से होगा.

भक्तजनों, आपको यह बाते शायद अजीब लगे, लेकिन हमारे सारे वेद, पुराण और तो और दुसरे धर्म में भी यही सब कहा गया हे. बस हमारे वेदों में उसको विस्तार से बताया गया हे. कुछ बात होगी तभी तो यह सब कहा गया होगा. वर्ना जैसे हम विश्वास नहीं करते, वैसे उस ज़माने में भी कोई विश्वास नहीं करता इन बातो पर, लेकिन उन्होंने किया, तो कोई तो बात होगी. अन्धविश्वास तो इन २००० हज़ार सालो में आया हे जब लोग उन बातो का सही मतलब भूल गए और सिर्फ प्रथा निभाने के लिए बिना मतलब समझे कर्म करने लगे. वैसे भी हमारा क्या बिगड़ जायेगा अगर हम इन छोटी छोटी बातो का ध्यान रखे, हमारा भला नहीं भी हुआ तो कोई नुकसान भी तो नहीं हे. और अगर ये बाते सही हुई तो कितना भला होगा हम सब का.

भक्तजनों मुझे पूरा विश्वास हे इन बातो पर और मैंने कई बाते सही में होते हुए भी देखि हे, पर आप में से अगर कुछ लोगो को विश्वास नहीं हे तो यह सोचिये की यह सब करने से आपका कोई नुकसान नहीं हे.

अगले अंक में चर्चा आगे बढ़ाएंगे.


जय श्री कृष्ण !!!

Thursday, November 4, 2010

Geeta chapter - 3.1

भक्तजनों में आप लोगो से माफ़ी चाहता हु की इतने दिनों तक आप सब को इंतज़ार करना पड़ा. मुझे समय ही नहीं मिल पाया, नौकरी, घर और दुसरे काम में इतना व्यस्त हो गया की लिखने का समय ही नहीं मिला.
कृपया आगे कभी इस तरह की देरी हो तो मुझे माफ़ करदे.

आज से गीता का तीसरा अध्याय शुरू करते हे. आज जिन श्लोक की चर्चा होगी, वे श्लोक अर्जुन की मन कि इस्थिथि को समझायेंगे. इन श्लोक के बाद ही असली श्लोक की शुरुवात होगी. वैसे तो अर्जुन की जो इस्थिथि इसमें बताई गयी हे, वैसी इस्थिथि हम सबकी होती हे, या आप में से बहुत लोगो की हो गयी होगी अब तक गीता पढ़कर.


ज्यायसी चेत कर्मनास्ते माता बुद्धिर-जनार्धन
तट किम कर्मणि घोरे मम नियोजयासी केशव !!!
MEANING : हे केशव जब आप ये मानते हे की ज्ञान कर्म से बड़ा हे तो आप क्यों मुझे इस महा पाप वाले कर्म को करने को कह रहे हे.

व्यमिश्रेनेव वाक्येन बुद्धि मोहयसीव में
तदेकं वाद निश्चित्य एन श्रेयो-हमप्नुयम !!!

MEANING : आपकी अलग-अलग बाते सुनकर मुझे कुछ समझ में ही नहीं रहा हे. आप कोई एक बात बताये जो मेरे लिए निश्चित ही लाभदायक हो.

न कर्म्नाम्नार्म्भन नैष्कर्म्य पुरुशोश्नुते
न च संयास्नादेव सिद्धिम समधिगाछ्ती !!!
MEANING : कोई भी व्यक्ति वैदिक कर्त्तव्य को पूर्ण करे बिना अपने कर्म के फल से नहीं बच सकता और उन कर्त्तव्य को करने से कभी निपुणता नहीं आएगी.


ही कश्चित् शंमापी जातु तिष्ठात्याकर्म्कुत
कार्यते हवाशः कर्म सर्वाः प्रक्रतिजैर्गुनैः !!!
MEANING : कोई भी व्यक्ति अपने आप को कर्म से दूर नहीं रख सकता, एक पल के लिए भी नहीं. इस संसार की प्रकृति के कारण हर व्यक्ति हर पल कोई कोई कर्म करने के लिए मजबूर रहता हे.


नियतं कुरु तवं कर्म ज्यायो हकार्मनाह
शरिर्यत्रपी च ते न प्रसिद्ध्येद्कार्मानाह !!!
MEANING : तुम्हे अपने वैदिक कर्त्तव्य निभाने चाहिए क्योंकि कर्म करने से अच्छा कर्म करना हे, कर्म नहीं करोगे तो अपने शरीर की देख-भाल तक नहीं कर पाओगे.


हम में से बहुत लोग यह सोचते होगे की कर्म करने से ही तो पाप लगेगा, तो क्यों कर्म करना ही छोड़ दे. और वैसे भी श्री कृष्ण कर्म से बढ़कर ज्ञान को बताते हे, तो फिर कर्म को करने में ही भलाई हे. रहेगा बांस और बजेगी बांसुरी. दूसरी बात यह की गीता के पहले अध्याय से तीसरे अध्याय तक जो कुछ भी पढ़ा, उस से हमे यह लगता हें की कई बाते एक दुसरे के विपरीत हे, कभी एक बात सही बताई जाती हे तो कभी दूसरी बात सही बता दी जाती हे. समझ ही नहीं आता हे की सही क्या हे और गलत क्या. इसी का जवाब हमे इन श्लोक में दिया जा रहा हे.

अर्जुन पूछ रहे हे की जब ज्ञान कर्म से बड़ा हे तो फिर मुझे क्यों पाप कर्म करने को कह रहे हे. इस तरह की अलग अलग बाते सुनकर मुझे कुछ समझ ही नहीं रहा हे. इसे समझने के लिए आपको यह समझना होगा की इस सृष्टि का निर्माण कैसे हुआ. सबसे पहले हे चेतना, सर्वत्र चेतना हे, और यही चेतना उर्जा का रूप धारण करती हे इस सृष्टि का निर्माण करने के लिए. और यही उर्जा अणु रूप धारण करती हें सृष्टि को आकार देने के लिए. इस तरह सृष्टि का निर्माण होता हे, अणु अलग अलग तरह से एक दुसरे से जुड़कर अलग अलग प्रकार के जीव और वस्तु बनाते हे, जीव में चेतना होने से उसमे जान होती हे और वस्तु में जड़ चेतना होने से उसमे जान नहीं होती. लेकिन यह ज़रूर समझा जा सकता हे की चेतना से उर्जा और उर्जा से अणु का निर्माण होता हे. वैज्ञानिक शोध से पता चला हे की अणु के कई हज़ार-लाख हिस्से करने पर भी उसका कोई ठोस स्वरुप नहीं मिल पाया हे. अणु को ले तो उसमे नयूत्रण, प्रोटोन, एलेक्ट्रों होता हे. और उनके बिच में काफी सारी खाली जगह होती, जब इनके भी कई हिस्से किये जाते हे तो पता चलता हे इनमे भी कई सारा हिस्सा खाली हे और अब तक कभी कोई ठोस हिस्सा मिला ही नहीं हे. आखिर में निष्कर्ष ये निकला हे की उर्जा एक जगह पर एकत्र होती हे और अपने घेराव के कारण इतनी सबल होती हे की उसे अलग करना बहुत मुश्किल हो जाता हे और बस यही उर्जा का समूह हमे अणु जैसा प्रतीत होता हे, असल में वो केवल उर्जा ही होती हे.

वैज्ञानिक अणु और उर्जा का सम्बन्ध तो जान पाए लेकिन उर्जा और चेतना का सम्बन्ध जानना अभी बाकि हे. इसमें चेतना ही ज्ञान स्वरुप हे, इसलिए वो सबसे बड़ी, और कर्म केवल अणु रूप के होने पर ही संभव हे इसलिए वो ज्ञान से छोटा. लेकिन यह भी सही हे की हम अणु रूप में चुके हे और इस प्रकृति का हिस्सा बन चुके हे, इसलिए हमे इस प्रकृति के खिलाफ जाकर कभी ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकेगा. और यही बात श्री कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हे की ज्ञान बड़ा तो हे लेकिन हम अणु प्रकृति में होने के कारण कर्म के बिना उस ज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकते. ज्ञान तो बहुत दूर की बात हे हम तो हमारे शरीर की देख-भाल भी नहीं कर पाएंगे अगर कर्म नहीं किया तो. लेकिन हर कर्म का कोई कोई फल हे इसलिए वैदिक कर्म करो जिसका फल ज्ञान हे. इसीलिए वैदिक कर्म का इतना महत्व हे.

कर्म को सही तरीके से करने में बहुत श्रद्धा और विश्वास का होना ज़रूरी हे, इसलिए हमे अच्छे कर्म यदा कदा करते रहना चाहिए ताकि कुछ अच्छाई तो हम में शेष रहे. हम इश्वर के कुछ करीब तो सके. जैसे रोज़ सुबह ११ बार मंत्र जाप करना या खाने से पहले इश्वर को भोग लगाना जैसे छोटे छोटे काम आपका बहुत भला करेंगे.

भक्तजनों अब आप समझ गए होंगे की श्री कृष्ण कोई दो विपरीत बात नहीं कर रहे, बल्कि हमारी समझ इतनी नहीं हे की उनकी बाते एक-दम से समझ सके.

आगे के श्लोक और भी ज्ञान वरदक होंगे, जिसकी हम अगले अंक में चर्चा करेंगे.

आप सबको दीपावली कि शुभ कामनाएं.

जय श्री कृष्ण !!!

Friday, October 1, 2010

Geeta chapter - 2.19

भक्तजनों पिछले अंक के साथ दूसरा अध्याय समाप्त हो गया और तीसरे अध्याय की शुरुवात करनी हे. लेकिन कुछ सवाल मन में उठ रहे होंगे की ऐसे कौन से वैदिक कर्म, कर्त्तव्य हे जिन्हें किसी भी हालत में करना ही चाहिए. क्या कभी कोई ऐसे ख़ास कर्म हो सकते हैं जिन्हें करने से हम पाप मुक्त हो सकते हे.
तीसरे अध्याय में इन्ही सब बातो पर चर्चा होगी.

ऐसे कोई चुने हुए कर्म नहीं हे जिनको करना हे बल्कि यह एक जीवन जीने का तरीका हे जिसे पूरी ज़िन्दगी निभाना पड़ेगा. ऐसा जीवन जो आपका तो भला करे ही, पर साथ ही आपसे इस दुनिया का भी भला हो. जो आपके जीवन को मोक्ष के करीब ले जाये. आपके संस्कार को समाप्त करे और आपको बंधन मुक्त करदे. यह सब कोई खास कर्म कर लेने से नहीं होगा, बल्कि इसके लिए जीवन को साधना ज़रूरी हे.

तीसरे अध्याय में श्री कृष्ण हमारे रोज़ के कर्म के बारे तो बता ही रहे हैं, साथ ही एक ज्ञानी के एक अज्ञानी के प्रति क्या कर्त्तव्य होते हैं, उनके बारे में भी बता रहे हैं. जब आप इस अध्याय को पढेंगे तो पाएंगे की हमारे जो माता पिता या दादा दादी जिस जीवन को जीते थे और जो रोज़ पूजा पाठ करना, भोग लगाना, उपवास रखना जैसे काम जो करते थे, उनका कितना बड़ा मतलब हे. यह सब वे ऐसे ही नहीं करते थे बल्कि यह सब वैदिक कर्म हे और हमारे कर्त्तव्य हे. आज हम लोग यह सब भूल गए और शर्म की बात यह हे की हम लोग उन लोगो का मजाक भी उड़ाते हे. खैर नुकसान हमारा ही हे, उन्होंने तो अपना जीवन सुधर लिया और मर कर अच्छी गति ही पाई होगी, लेकिन हमारा क्या होगा इसका कुछ पता नहीं. इसकी विस्तार से चर्चा हम अगले अंक से करेंगे जब श्लोक के साथ तीसरे अध्याय की शुरुवात होगी. यह अंक तो आपको इस अध्याय के बारे में एक जानकारी के लिए दे रहा हु.


जय श्री कृष्ण !!!

Sunday, September 26, 2010

Geeta chapter - 2.18

भक्तजनों दुसरे अध्याय के बचे हुए श्लोक में से कुछ मुख्य श्लोको पर हम चर्चा करेंगे. इन श्लोको के साथ ही दुसरे अध्याय की समाप्ति हो जाएगी.

तानी सर्वानी संयम्य युक्त आसीत मत्परः
वशे ही यस्येंद्रयानी तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता !!!
MEANING : साधक को अपनी इन्द्रियों को अपने वश में रखकर मुझपर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए क्योंकि जिसकी इन्द्रिया वश में होती हैं वो साधक चेतन्य अवस्था में स्थापित होता हे.

ध्यायतो विषयां पुंसः संग्स्तेशुपजयते
संगात्संजायते कामः कमात्क्रोधोभिजयते !!!
MEANING : विषय वस्तु पर ध्यान केन्द्रित करने से उस वास्तु के प्रति आकर्षण पैदा होता हे, आकर्षण से मोह उत्पन होता हे और मोह से क्रोध.

क्रोधाद भवति सम्मोह सम्मोहत्स्म्रतिविभ्रमः
स्म्रतिभ्रन्षद बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रन्श्यती !!!
MEANING : क्रोध से माया(यहाँ पर माया से तात्पर्य हे illusion से), माया से स्मृति लुप्त होती हे और स्मृति के लुप्त हो जाने पर ज्ञान भी समाप्त होता हे और ज्ञान के न रहने पर हमारा अस्तित्व भी समाप्त हो जाता हे.

आपुर्यमानाम्चाल्प्रतिष्ठिथ
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत !
तादात कम यम प्रविशन्ति सर्वे
सा शान्तिमाप्नोति न कामकामी !!!
MEANING : उस साधक को असीम शांति प्राप्त होती हे जिस पर किसी भी तरह की सुख सुविधा का कोई असर नहीं होता हे. जैसे कोई समुद्र हमेशा तृप्त और भरा रहता हे और कितनी भी नदिया आकर उसमे मिल जाये उस पर कोई असर नहीं होता.

एषा भ्रह्म्ही स्थितिः पर्थ नैनं प्राप्य विमुहती
स्थित्वस्यमंत्कालेपी भ्रह्मनिर्वन्म्रचाछाती !!!
MEANING : हे अर्जुन, ज्ञान प्राप्त हो जाने पर वो साधक फिर कभी मोह-माया के वश में नहीं आता हे और अपनी मृत्यु के समय भी वो परमात्मा में लीन रहता हे. ऐसे साधक को निश्चय ही मोक्ष की प्राप्ति होती हे.


भक्तजनों इन श्लोको में श्री कृष्ण कह रहे हैं की साधक को अपनी इन्द्रियों पर काबू रखना चाहिए और उस परमत्मा पर ध्यान केन्द्रित करके ध्यान लगाना चाहिए. ऐसे में सवाल आता हे की ध्यान तो मन को वश में करने का साधन हे, ध्यान तो किसी भी वस्तु पर लगाया जा सकता हे, तो फिर श्री कृष्ण उन पर ध्यान केन्द्रित करने को क्यों कह रहे हैं. महत्व तो इन्द्रियों को काबू में करने का हे, न की ध्यान की वस्तु का. फिर क्यों राम का ही ध्यान लगाया जाये और रावण का नहीं. इसका जवाब दुसरे श्लोक में मिलता हे की हम जिस किसी वस्तु पर भी ध्यान लगाते हे, उस वस्तु के गुण हम में आने लग जाते हे. इसीलिए पुराने ज़माने में या तो इश्वर की मूर्ति पर ध्यान लगाया जाता था या फिर दीपक की लौ पर क्योंकि दीपक की लौ को सबसे पवित्र माना जाता हे. जब विषय वस्तु पर ध्यान लगाया जाता हे तो उस वस्तु के प्रति आकर्षण पैदा होने लगता हे और जब आकर्षण पैदा होता हे तो इच्छाए उत्पन होने लग जाती हे. और अगर इच्छाए पैदा होने लग गयी तो फिर ध्यान लगाने का कोई मतलब ही नहीं रह गया. इच्छाओ को काबू करने के लिए ही तो ध्यान का सहारा लिया जाता हे.

जब इश्वर पर ध्यान लगाया जाता हे तो इन्द्रिया तो काबू में होती ही हैं, साथ ही साथ इश्वर वाले गुण आने लग जाते हैं. मन में इश्वर के प्रति आकर्षण पैदा होने लग जाता हे और मोक्ष की इच्छा और तीव्र होने लग जाती हे. इन्द्रियों के काबू में आ जाने से विषय वस्तु में कोई रूचि नहीं रहती, बस ध्यान में बैठे रहने का मन होने लगता हे. मन में असीम शांति रहती हे, न कोई दुःख और न कोई सुख, सिर्फ शांति रहती हे. और मन की शांति ही सबसे बड़ा सुख होता हे.

श्री कृष्ण कह रहे हैं की जो साधक इन्द्रियों को काबू में रख पाता हे उसे असीम शांति प्राप्त होती हे और फिर चाहे उसे सारा संसार ही क्यों न मिल जाये, वह उसे ठोकर मार कर इश्वर प्राप्ति को ही महत्व देता हे. जैसे समुद्र हमेशा तृप्त ही रहता, हमेशा अपने में मगन, कितनी भी नदिया उसमे मिल जाये लेकिन उसे कभी नदी की इच्छा नहीं होती, समुद्र में मिल जाने पर उस नदी का अता पता ही नहीं रहता हे. उसी तरह साधक होता हे, संसार की सुविधा से कही ज्यादा सुख उसके भीतर ही होता हे और बाहरी सुख उसमे आकर ऐसे गायब होता हे की कोई अता-पता ही नहीं रहता.

ऐसा साधक अपनी मृत्यु के समय भी चिंता मुक्त रहता हे, उसे मरने का कोई डर या दुःख नहीं होता। ऐसे साधक को निश्चय ही मोक्ष मिलता हे क्योंकि वो संसार में रहकर भी संसार का नहीं रहता.भक्तजनों पुराणों, वेदों में ध्यान की बड़ी महिमा बताई गयी हे. अगर आप में से कोई अध्यात्म को गंभीरता से लेना चाहता हे तो कोई बड़ा कदम उठाने की बजाय ध्यान से शुरुआत करना ठीक रहेगा. रोज़ १५ मिनट का ध्यान कुछ सालो में आपको बहुत फ़ायदा करेगा. यह एक ऐसी चमत्कारी विध्या हे जो भारत की तरफ से विश्व को एक अमूल्य तोहफा हे. इस विध्या को अगर हिन्दू ग्रंथो में नहीं बताया गया होता तो शायद विश्व को कभी इस विध्या के बारे में पता न चलता. इसलिए बहुत ज्यादा नहीं तो ५ मिनट ही करे लेकिन करे ज़रूर. और हाँ किसी चमत्कार की उम्मीद न करे, उसके लिए तो एक अलग ही जीवन को जीना पड़ता हे. वोह हम जैसे सांसारिक लोगो के बस का नहीं हे.

अगले अंक से तीसरे अध्याय के श्लोको की चर्चा शुरू करेंगे जिसमे हमारे वैदिक कर्तव्यों के बारे में बताया गया हे, जिसे हमे किसी भी युग और किसी भी हालत में निभाना ही पड़ता हे.


जय श्री कृष्ण !!!

Wednesday, September 15, 2010

Geet chapter - 2.17

भक्तजनों जिस श्लोक पर हमने पहले चर्चा ख़त्म करी थी, उसके बाद के कुछ श्लोक लगभग वही बात करते है. इसलिए उन श्लोक पर चर्चा नहीं करते हुए, आगे के श्लोक पर चर्चा आगे बढ़ाते हे.

इस्थित्प्रग्यस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव
इस्थिताधिः किम प्रभासेट किमसिथ व्रजेत किम !!!
MEANING : हे कृष्ण जो व्यक्ति परमात्मा में लीन हो जाता है, जिस व्यक्ति को अध्यात्म चेतना प्राप्त होती है, वो व्यक्ति चलता कैसे है, कैसे बैठता है, कैसे बात करता है. ऐसे व्यक्ति को कैसे पहचानना चाहिए, उसकी क्या निशानी होती है.

प्रझाती यदा कामां सरवन पर्थ मनोगतान
आत्मन्येवात्मना तुष्टः इस्थित्प्रग्यास्त्दोच्याते !!!
MEANING : हे अर्जुन, जिस व्यक्ति की सारी इच्छाएं समाप्त हो गयी हो और जो आत्मज्ञान में इस्थित होकर संतुष्ट रहता है, वो व्यक्ति परमात्मा में लीन माना जायेगा.

यह सर्वत्रन्भिस्नेहस्तातात्प्रप्या शुभाशुबम
नाभिनान्दाती न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता !!!
MEANING : वो व्यक्ति जो दुःख से विचिलित न होता हो, जिसमे सुख की इच्छा न हो. जो मोह, क्रोध और डर से मुक्त हो, वो व्यक्ति परमात्मा में लीन होता है.


भक्तजनों पहले श्लोक में अर्जुन सवाल करते है और पूछते हैं की जो व्यक्ति परमात्मा में लीन होता है, जिसकी सारी इच्छाए ख़त्म हो गयी हो, उस व्यक्ति को कैसे पहचान सकते हैं. वो व्यक्ति चलता कैसे है, बात कैसे करता है. भक्तजनों भगवत गीता का यही महत्व है की उसमे अर्जुन ने वही सारे सवाल किये हैं जो किसी के भी मन में आ सकते हैं. जो आपके या मेरे मन में आते हे. हम कई बार यह सोंचते हैं की सही और इमानदार संत को कैसे पहचान सकते हे, क्या फर्क होता हे उनमे और हम में. ऐसा कहते हे की अर्जुन ने यह सारे सवाल जान-भुज कर करे थे ताकि आगे चलकर लोगो को भगवत गीता आसानी से समझमे आ सके.

सवाल करना कोई गलत बात नहीं हे. किसी बात को जब तक समझोगे नहीं तो करोगे कैसे. और समझने के लिए मन में उठने वाले सारे सवालो के जवाब मिलने चाहिए. मुझे एक बार एक इ-मेल मिला था जिसमे किसी ने मजाक किया था की अगर कृष्ण के मामा कंस को अगर अपनी मौत से बचना ही था तो उन्होंने अपनी बहिन और जीजाजी को एक ही जगह क्यों बंद किया, अलग-अलग रखता तो न बच्चे होते और न वो मरता. भक्तजनों यह मजाक ज़रूर था लेकिन सवाल एकदम सही.

मैंने कहा की महाभारत में सिर्फ एक यह बात ही आश्चर्य की नहीं है, गांधारी के १०० बच्चे थे, एक बच्चे को होने में ९ महीने लगते है, और मान लिया जाये के बच्चे एक के बाद एक हुए हो तो भी ७५ साल लग जायेंगे १०० बच्चे होने में. जबकि दुर्योधन तो जवानी में ही मारे गए थे और उसके पहले ही वे सब १०० भाई थे. खैर सवाल बहुत से हे और जवाब भी, लेकिन इसकी चर्चा फिर कभी.

भक्तजनों अर्जुन ने जो सवाल किया था उसके जवाब में श्री कृष्ण बताते हे की जिस व्यक्ति की सारी इच्छाए समाप्त हो गयी हो, वो व्यक्ति ही परमात्मा में लीन माना जायेगा. उसके चलने या बात करने के तरीके में कोई फर्क नहीं होगा. उसके चलने या बात करने के तरीके से आपको कुछ पता नहीं चलने वाला हे. इसलिए आपको सिर्फ आपकी इस्तिथि का पता होगा, दुसरे लोगो की नहीं. अगर आपकी इच्छाए ख़त्म हो गयी हो तो आपको पता चल जायेगा, लेकिन दुसरे व्यक्ति की नहीं.

इसे समझने के लिए में आपको एक कथा सुनाता हु.
एक बार एक संत किसी नगर में गए हुए थे. उनके बारे में सुनकर उस नगर के राजा ने उन्हें अपने महल में रहने का आग्रह किया. संत मान गए. उन संत के लिए राजा ने सारी सुख सुविधा करवा के रखी. जो वो राजा खाता, वाही संत को भी दिया जाता. उनके सोने के लिए भी आरामदायक पलंग दिया गया था. शुरू में तो राजा खुश था लेकिन कुछ दिनों के बाद उसे लगने लगा की ये कैसे संत हे, अगर इन्हें सारी सुविधा मिल रही हे तो इनमे और मुझमे क्या फर्क हे. यह तो मेरी ही तरह आम इन्सान हे. राजा किसी तरह हिम्मत करके उन संत को महल छोड़ कर जाने को कहता हे. संत तुरंत मान जाते हे. जब वे जाते हे तो राजा उनसे पूछता हे की हे संत क्या आपको ज़रा भी दुःख नहीं हो रहा हे इन सारी सुख सुविधा को छोड़ने का. संत कहते हे, राजन में तो सिर्फ महल में रहता था, मुझे इस महल से कोई मोह नहीं हे. ज़रूरत जितना खाता था और ज़रूरत जितना सोता. इसके अलावा इस महल का मेरे लिए कोई प्रयोजन नहीं हे. यह तो में जंगल में रह कर भी कर सकता हु. मेरी ज़रूरत तो कही भी पूरी हो सकती हे. लेकिन तुम्हे इस महल का मोह हे इसलिए तुमको दुःख होता हे इसे छोड़ने में. बस यही फर्क हे हम दोनों में. हम दोनों एक ही तरह खाते, सोते थे लेकिन मुझे मोह नहीं था और तुम्हे इस महल से लगाव हे.

भक्तजनों में शुरू से यही कहता आया हु की सुख सुविधा का त्याग करना किसी समस्या का हल नहीं, मन से उसके मोह को निकालना ज़रूरी हे. फिर कीचड़ में भी कमल की तरह रह सकोगे.

अगले अंक में कुछ और श्लोक की चर्चा करेंगे.


जय श्री कृष्ण !!!

Saturday, September 4, 2010

Geeta chapter - 2.16

भक्तजनों कई सरे सवाल आते होंगे मन में की क्या सन्यास लेना सही होता है, क्या सन्यास के बिना मुक्ति संभव नहीं है. सन्यासी जीवन में ऐसी क्या खास बात है की उसे इतना महत्वपूर्ण माना जाता है. क्यों बड़े बड़े ज्ञानी लोग पहले सन्यासी बनते हैं और उसके बाद जाकर उन्हें ज्ञान प्राप्त हो पाता है. भक्तजनों हमारे समझने में थोड़ी सी गलती है. सन्यास कोई अलग से लेने की चीज नहीं है, वो तो एक पड़ाव है मुक्ति से पहले का. जब कोई व्यक्ति आध्यात्म की राह पर चलता है, योग करता है, ध्यान लगाता है, तो उसमे धीरे धीरे मन को एकाग्र करने की काबिलियत आ जाती है और जब मन एकाग्र हो जाता है तो ध्यान के आलावा किसी और चीज में मन ही नहीं लगता है. खाना पीना सिर्फ ज़रूरत जितना ही खाते हे. जब ऐसी इस्थिथि आ जाती हे तो हम परिवार और समाज के रीती रिवाज़ से परेशान होने लगते हैं, हमे लगने लग जाता है की इस सब से हमारा समय बर्बाद हो रहा है, कभी किसी के यहाँ बच्चा पैदा हो गया तो वहां जाना पड़ता है, कभी किसी की शादी में जाना है, तो कभी किसी का कुछ तो कभी किसी और का कुछ न कुछ चल रहा होता है. इन सब से मुक्त होते ही परिवार के लिए समय निकालना पड़ता है. हमे लगता है की इन सब कामो की वजह से हम ध्यान नहीं लगा पा रहे हैं. रोज़ कुछ न कुछ काम निकल आता है. इसी वजह से कुछ लोग घर-बार छोड़ कर जंगल में चले जाते थे. जिन्हें ऐसी कोई परेशानी नहीं थी वे घर पर ही यह सब करते थे. परेशान होने की वजह भी सही थी क्योंकि ध्यान कोई एक या दो घंटे नहीं बल्कि १०-१२ घंटे लगाना पड़ता है, तब जाकर मन काबू में रह पता है और मुक्ति का रास्ता खुलता है. समाज और परिवार के रहते इतने घंटे ध्यान लगा पाना असंभव हे, इसीलिए वे जंगल में चले जाते थे.

मुक्ति का मतलब ही यह है की व्यक्ति को इश्वर के अलावा किसी और की इच्छा ही नहीं हे. न शरीर की, न परिवार की, न धन-दौलत की, किसी की भी नहीं. सिर्फ इश्वर और सिर्फ इश्वर. और सन्यास इसकी शुरुवात होता है. इसलिए सन्यास कोई अलग से लेने की चीज न होकर, प्राक्रतिक तौर पर आपका स्वाभाव बन जाता है. जैसे हमे नींद आने से पहले हमारा शरीर बोझिल होने लगता है, हम अलग से प्रयास नहीं करते हैं शरीर को बोझिल करने का. जब नींद आती है तो अपने आप ही शरीर ढीला पड़ने लगता है. इसी तरह से जब मुक्ति का समय आने लगता है तो अपने आप सन्यासी वाले गुण आने लग जाते हैं, फिर किसी के रोकने पर हम रुकते नहीं हैं. इसीलिए हमे लगता है की उस समय लोग जबरन ही सन्यास लेते थे जबकि हकीकत यह है की सन्यास लेते नहीं थे बल्कि सन्यासी जीवन को प्राप्त करते थे. रही बात की ऐसा करना सही है या नहीं तो यह समझ लीजिये की यह कोई साल दो साल की बात नहीं है, कई साल लग जाते है मन से मोह माया को निकालने में, जब तक हमारी किस्मत में मुक्ति लिखी नहीं हो तब तक हम इस तरफ ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाते हैं. बहुत पहले ही हमे आभास होने लग जाता है की मुक्ति मिल जाएगी, कई सारी सिद्धिया प्राप्त हो जाती है, और जब ऐसा हो तो ज़ाहिर सी बात है की दुनिया हमारी मुट्ठी में आ जाएगी, फिर ऐसी दुनिया का हमे क्या मोह रहेगा. हम तो इस से भी आगे बढ़ने की सोचेंगे. इसीलिए लोग अध्यात्म के रास्ते से अलग नहीं हट ते थे. उन्हें पता चल जाता था की इस सब से बड़ा इश्वर है और पाना हे तो उसे पा लो. यही अध्यात्म है।

जय श्री कृष्ण !!!

Tuesday, August 31, 2010

Geeta chapter - 2.15

भक्तजनों कुछ दिनों से मैंने कुछ नहीं लिखा है. थोडा बीमार हो गया था. मुझसे वैभाव्जी ने अच्छा सवाल पुचा था. श्री कृष्ण कर्म की बात करते हैं, कर्त्तव्य की बात करते हैं, लेकिन गौतम बुद्ध ने अपना राज-पात, परिवार छोड़ दिया था और जंगले में चले गए थे. दोनों को महँ मन जाता है. लेकिन दोनों ने एक दुसरे से बिलकुल विपरीत काम किये. तो फिर दोनों में से सही कौन. सही दोनों ही हैं. फ़र्ज़ निभाने का मतलब किसी ख़ास काम को करना नहीं होता है, अगर ऐसा होता तो सरे लोग अपने परिवार को एक ही तरीके से पलते. मकसद होना चाहिए की परिवार खुश रहे, उनका भरण पोषण होता रहे. तकलीफ न हो. इस तरह से कोई भी फ़र्ज़ उन्होंने करने से मन नहीं किया. राज-पट उनके पिता का था इसलिए प्रजा के प्रति उनकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं थी, वे खुद भी अगर रजा होते और सन्यास लेने के लिए राज-पट किसी और को सौप देते तो भी चलता. मकसद तो प्रजा की देख भाल के साथ ही ख़त्म हो जाता है. जिस समय
उन्होंने ने सन्यास लिया था उस समय वे युवराज थे, परिवार का भरण पोषण करना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी, ऊपर से परिवार कोई ऐतराज़ भी नहीं था.

वो ज़माना ही ऐसा था जब लोग सन्यास को जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काम मानते थे. गौतम बुद्ध ने किसी को बे-सहारा छोड़ कर सन्यास नहीं लिया था. ऐसा कोई फ़र्ज़ नहीं था जिसे वे अधुरा छोड़ कर सन्यास ले रहे थे. और इस पर भी इश्वर प्राप्ति ही हमारा सबसे बड़ा फ़र्ज़ है.

इसके बिलकुल विपरीत अर्जुन कर रहे थे. सेना लड़ने को तैयार है, सब जानते थे की अर्जुन के बिना युद्ध जीतना नामुमकिन है, प्रजा को दुर्योधन जैसे जुल्मी रजा के हटो में छोड़ कर सन्यासी बन जाना तो बहुत गलत है. उनकी प्रजा को सँभालने वाला कौन था, उनके बड़े भाई ज़रूर थे, लेकिन उसके लिए युद्ध
जीतना भी तो ज़रूरी था. इस पर भी सन्यास का कारन मोक्ष न होकर वे सिर्फ अपने सम्बंधियो को मरने से लगने वाले पाप से बचना चाहते थे. ऐसे तो मुक्ति संभव नहीं है भाई. द्रौपती तो बिलकुल उनके सन्यास लेने के विपरीत थी. और तो और अगर सन्यास लेना ही था तो शादी करी ही क्यों. करी भी तो उस से जो आपके सन्यास से खुश न हो, तो फिर उसको दुखी कर के तो जा नहीं सकते.

कहने का मतलब यही है की या तो ज़िम्मेदारी में बंधे ही नहीं, और अगर अपने खुद ज़िम्मेदारी उठाई है और आपके भरोसे कोई आपके साथ आ गया है तो फिर उसका साथ दे. अगर किसी को आपकी ज़रूरत है तो आप मन नहीं कर सकते. यह बाते चर्चा करने पर ही समझमे आएँगी. सिर्फ में ही में बोलता रहूँगा तो
समझमे नहीं आएँगी.

अगर संक्षिप्त में कहे तो सन्यास लेना भी ज़रूरी है, कभी भारत में यह एक आम बात थी. लोग कशी जाया करते थे. लेकिन फ़र्ज़ और सन्यास में तालमेल बिठाना आता था उनको. जैसे हम जब चलते हैं तो कई जीव-जंतु हमारे पैरो के निचे आकर मर जाते है. उसका हम कुछ नहीं कर सकते, लेकिन जानते भुजते तो नहीं करना चाहिए. उसी तरह सन्यास तो लेना ही है लेकिन यह जानते हुए की ऐसा करने पर कोई अनाथ हो जायेगा, किसी का कोई और नुकसान हो जायेगा, और हम फिर भी सन्यास ले तो सही नहीं है न. एक तालमेल बिठा कर करे तो सब सुखी हो जायेंगे. थोडा दुसरो को भी समझना चाहिए की उनके भोग में किसी का सन्यास तो नहीं बिगड़ना चाहिए, थोडा आपको भी समझना चाहिए की अपनी कुछ जवाबदारी है किसी के प्रति, उनको पूरा करते ही सन्यास ले लेंगे.

जय श्री कृष्ण !!!

Friday, August 27, 2010

Mistake in the previous edition

भक्तजनों पिछले अंक में एक गलती हो गयी थी. मैंने गलती से वर्ण व्यवस्था लिख दिया था. उस व्यवस्था को वर्ण व्यस्था नहीं बल्कि आश्रम व्यस्था कहते हैं. चार भाग होते हैं इस व्यस्था में - ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम. कृपया उसे इसी अनुसार पढ़े।

जय श्री कृष्ण !!!

Saturday, August 21, 2010

Geeta chapter - 2.14

भक्तजनों पिछले अंक से चर्चा आगे बढ़ाते हैं और बात करते हैं की इश्वर को अपने कर्म कैसे समर्पित कर सकते है, कैसे फल की इच्छा के बिना कर्म कर सकते हैं।

भक्तजनों मुझसे किसी ने facebook पर सवाल किया था की वे भगवत गीता में लिखे अनुसार जीना चाहते हैं और क्या इसके लिए किसी गुरु की शरण में जाना सही रहेगा क्या। भक्तजनों जैसा की मैंने कई बार कहा है की एक दम से इतना बड़ा फैसला लेना सही नहीं हैयह बात सही है की गुरु बिन हरी नहीं मिलते लेकिन उसके लिए बहुत तय्यारी करनी पड़ती है। इन सब बातो को ही हम कर्म योग में जानेंगे।

कर्म योग है क्या और हमारी कैसी मानसिकता होनी चाहिए जब हम कर्म योग को अपने जीवन में उतारना चाहते हैं। भक्तजनों आप यह तो जानते ही होंगे की हमारे हर कर्म का कोई फल होता है और उसे हमे भुगतना होता है। फिर वो कर्म चाहे हमसे अनजाने में हुआ हो या जानते भुजते। अगर भलाई की होगी तो अच्छा फल मिलेगा और अगर गलत काम किया होगा तो सजा। हमने यह भी चर्चा की थी की अच्छे कर्म का बंधन भी ठीक बात नहीं है। तो कर्म योग में हम यही जानेंगे की कर्म करते हुए भी हम कैसे उसके बंधन से मुक्त हो सकते है।

श्री कृष्ण कहते है की अगर हर कर्म इश्वर को समर्पित कर दिया जाये तो उस कर्म के बंधन में हम नहीं बंधते। इस बात को समझने के लिए हमे मनु स्मृति में लिखे हुए कुछ अंश का सहारा लेना पड़ेगा। उसमे भोजन बनाते और खाते वक़्त जो हमसे पाप होते हैं उनसे बचने का उपाय बताया गया है। उसमे कहा गया है जब भी आप खाना खाते हैं या उसे बनाते हैं तो उसे शुरू करने से पहले इश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए की यह भोजन तो आपके लिए लगाया जाने वाला भोग है और हम इसे प्रसाद समझकर खा रहे हैं। इश्वर को धन्यवाद् देना चाहिए की वे हमे भोजन उपलब्ध करवाकर हमारे जीवन यापन के लिए कृपा कर रहे हैं। भोजन को भी देवता मानकर उसके हाथ जोड़ने के बाद ही खाना चाहिए। एक तरह से कृतज्ञता जतानी चाहिए। यह भोजन आपको समर्पित है और हम आपके बाद ही उसे खाते हैं। ऐसा करने से घर में अनजाने में जो जीव-जंतु जो पानी पीते वक़्त या घर की सफाई करते हुए जो कीड़े मरते हैं या फिर भोजन बनाते हुए जो कीड़े मरते हैं उनका पाप हमे नहीं लगता। ऐसा मनु स्मृति में बताया गया है। ऐसा इसलिए है की हम भोजन हमारे स्वाद की तृष्णा के लिए नहीं बल्कि इश्वर को भोग लगाने के लिए बना रहे हैं और क्योंकि यह कर्म इश्वर को समर्पित है इसलिए इसको करते वक़्त जो भी पाप होता है उसका पाप हमे नहीं लगता। लेकिन भक्तजनों इस बात में ईमानदारी होनी चाहिए। अगर भोजन खाने से पहले इश्वर को भोग लगा रहे हैं तो पुरे मन से काम करे, ऐसा मानकर करे की सही में इश्वर ही खा रहे हैं और अगर आप ईमानदारी से ऐसा मानेंगे तो उन्हें मांसाहारी भोजन या फिर सात्विक भोजन के आलावा कुछ नहीं चढ़ाएंगे। अगर आप स्वाद के लिए तामसिक या मांसाहारी भोजन बनाकर सिर्फ इश्वर को भोग लगाने का नाटक करेंगे तो फिर पाप दुगना भोगना पड़ेगा। कर्म योग में ईमानदारी जरुरी है।

में आपको एक कथा सुनाता हु। एक ब्रह्मण का बच्चा होता है जिसे उनके ऋषि पिता बचपन से यह सिखाते हैं की खाने से पहले इश्वर को भोग लगाना चाहिए। वो बच्चा ऐसा ही करता है। कुछ साल बाद वोह बड़ा हो जाता है। एक दिन कोई उसके खाने में ज़हर मिला देता है। वो लड़का इश्वर को भोग लगता है और जब उसकी नज़र उस खाने के बर्तन पर जाती है तो उसके नीले पड़े हुए रंग से वो समझ जाता है की किसी ने इसमें ज़हर मिला दिया है। लेकिन वो यह सोंचता है की जब मेरे भगवन ने यह खा लिया तो में कैसे अब मना कर सकता हु और वो भोजन खा लेता है। लेकिन इश्वर तो ऐसे भक्त को कुछ होने ही नहीं दे सकते इसलिए वो बच जाता है। इसीलिए में कह रहा हु की ईमानदारी हो तो फिर ऐसी होनी चाहिए।

जैसा मैंने खाने के लिए कर्म योग को बताया है वैसा ही सारे कर्म करने के लिए करना चाहिए। यहाँ पर सवाल आता है की हम ईमानदारी से ऐसा करने की कोशिश कर सकते हैं लेकिन आज के ज़माने में कोई न कोई गलती हो ही जाती है तो फिर उस पाप से हम कैसे बचेंगे। इसी समस्या के लिए शाश्त्रो में बताया गया है की जब आपकी साडी कोशिशो के बाद भी आपसे कोई गलत काम हो रहा है तो आप इश्वर से प्रार्थना करे की हे प्रभु मेरा यह कर्म तो आपको समर्पित है लेकिन मेरे लाख चाहने पर भी में इस गलत काम को करने से बच नहीं पा रहा हु। ऐसा करने पर आप उस पाप से मुक्त हो जायेंगे। लेकिन अपने सही में ईमानदारी से उस गलत काम से बचने की कोशिश करी होनी चाहिए।
आप यह नहीं कह सकते की हे भगवन मेरी तो मज़बूरी है चोरी करना वरना मेरे बच्चे अच्छे घर में नहीं रह सकते, गाड़ी घोड़े नहीं चला सकते। ऐसा करोगे तो बहुत पाप लगेगा। पहले ईमानदारी से सारे काम करने की कोशिश करनी चाहिए और अगर कोई रास्ता ही नहीं बचा हो और अगर आपके बच्चे बिलकुल मरने की हालत में पहुँच गए हो तभी आप कोई गलत काम कर सकते है और उसका प्रायश्चित भी आपको करना चाहिए। इश्वर से माफ़ी मांगना आपके लिए गलत काम करने का बहाना नहीं बनना चाहिए।

और क्योंकि आप हर काम इश्वर को समर्पित कर रहे हो इसलिए सिर्फ अच्छे काम ही आप कर सकते हैं। जिस तरह से भोजन सिर्फ सात्विक ही बनाना चाहिए उसी तरह से काम भी धार्मिक और कर्त्तव्य पूर्ण होने चाहिए। यह नहीं की पुरे दिन मौज मस्ती लगा रखी हो और फिर यह उम्मीद करे की इश्वर हमारा बेडा पार करेंगे। जितना यह सब समझने में आसान लगता है उतना करने में मुश्किल है। भोजन जैसी चीजो से शुरू करके धीरे धीरे सारे कामो को सुधारना चाहिए। कई लोग इसे भोजन तक ही सीमित रखते है और जब वे अपने परिवार की और समाज की जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाते है तो उसके बाद वे अपने दुसरे कामो को सुधरने के कोशिश शुरू करते हैं। यानि की बुढ़ापे में। लेकिन उसके लायक नीव वे अपनी जवानी के दिनों से ही डाल लेते है ताकि बुढ़ापे में यह सब करने में ज्यादा मुश्किल न हो। इसे वर्ण व्यवस्था कहते है जो हम जैसे ग्रहस्थो के लिए ऋषि मुनियों ने बनायीं थी। इसके बारे में हम और कभी चर्चा करेंगे।

कर्म योग मतलब आपका हर कर्म अच्छा हो और इश्वर समर्पित हो। शरीर को मंदिर समझे, खाने को इश्वर को लगने वाला भोग, अपने ऑफिस के काम को इश्वर की पूजा समझकर करे। इस तरह आपका हर कर्म इश्वर को समर्पित हो जायेगा। लेकिन जैसा मैंने कहा की अगर आप अपने काम इश्वर के काम मानकर करते है तो फिर उसमे वोह ईमानदारी और भक्ति भी होनी चाहिए।

अगले अंक में श्लोक पर चर्चा होगी।

जय श्री कृष्ण !!!

Tuesday, August 17, 2010

Geeta chapter - 2.13

भक्तजनों इस श्लोक को आपने कई बार सुना होगा. आज सिर्फ इस एक श्लोक पर चर्चा करेंगे

कर्मन्येवाधिकरास्ते माँ फलेषु कदाचन
माँ कर्म्फल्हेतुर्भुर माँ ते संगोस्त्वकर्मानी !!!
MEANING : तुम्हे अपने सारे कर्म करने का अधिकार है लेकिन उनके फल पर कोई अधिकार नहीं. कभी भी कर्म के फल से प्रेरित होकर कोई भी कर्म नहीं करना चाहिए और ही किसी मोह की वजह से किसी कर्त्तव्य को करने से मना करना चाहिए.

श्री कृष्ण कह रहे हैं की हमे सारे कर्म करने की आज़ादी होती है लेकिन उनके फल पर नहीं इसलिए फल को हमेशा इश्वर की मर्ज़ी पर छोड़ देना चाहिए. उस कर्म का कोई भी फल हो, उस फल को इश्वर की मर्ज़ी समझकर स्वीकार लेना चाहिए. इस तरह हम उस कर्म के बंधन से मुक्त हो जाते हैं.
श्री कृष्ण आगे कहते हैं की हमे कभी भी कर्म के फल से प्रेरित होकर कर्म नहीं करना चाहिए और ही किसी कर्म को करने का कारण उस कर्म का फल होना चाहिए. अगर वो कर्म आपका फ़र्ज़ है तो उस कर्म को सिर्फ इसलिए नहीं त्यागना चाहिए की उसका फल आपकी इच्छा के अनुसार नहीं है. फल कभी भी कर्म को करने या करने का कारण नहीं होना चाहिए.

इस बात को मई एक उधाहरण से समझाता हु.

हम भोजन करते हैं. हमारा फ़र्ज़ है की हम हमारे शरीर को स्वस्थ रखे. अच्छा भोजन अच्छे स्वस्थ्य की कुंजी है. हम भोजन अगर हमारा फ़र्ज़ समझ कर भी करे तो भी हमे भोजन से स्वाद ज़रूर आएगा. कहने का मतलब है की अगर कर्म फ़र्ज़ समझ कर करोगे तो भी उसका फल आपको मिलेगा ही. इसलिए फल की चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं.

यहाँ पर इस उधाहरण में कुछ बातो को इस तरह से समझिये.

हमारा फ़र्ज़ : शरीर को स्वस्थ रखना.
उसके लिए कौन सा कर्म करना है : अच्छा और सात्विक भोजन करना.
इस कर्म का क्या फल है : उस भोजन से मिलने वाला स्वाद.

ऊपर दिए गए कर्म में प्रकृति का क्या नियम है :

हमे हमारे शरीर के स्वस्थ्य के लिए तरह-तरह के भोजन करने होते हैं ताकि हमारे शरीर को पोषण मिल सके. कभी स्वादिष्ट भोजन तो कभी बे-स्वाद भोजन करना पड़ता है. कभी कभी तो करेले का रस भी पीना पड़ता है लेकिन उस से शरीर को बहुत फाईदा होता है. फल(स्वाद) चाहे अच्छा हो या बुरा लेकिन फ़र्ज़ के लिए करना पड़ता है.

जब हमारा लक्ष्य फ़र्ज़ निभाना होता है तो हमारे कर्म करने का क्या तरीका होता है :

हम खाने में ज्यादा मसाला/तेल वगैरह का इस्तेमाल नहीं करते, यह जानते हुए की इस से स्वाद कम हो जायेगा लेकिन फिर भी हम स्वाद की चिंता किये बिना सिर्फ अच्छे भोजन पर ही धयान देते हैं. बे-स्वाद चीजो से भागने की बजाई हम उसे सेहन करते हैं. इस बात को मानते हैं की यह सब तो खाना ही पड़ेगा अगर अच्छा स्वस्थ चाहिए तो. मन का इरादा पक्का होता है. कर्म करना है मतलब करना है, चाहे कुछ भी सहना पड़े.

इसका नतीजा क्या निकलता है :

नतीजतन हमारा स्वस्थ्य अच्छा होता है. हम भूक लगने पर ही खाना खाते है इसलिए बे-स्वाद खाना भी स्वादिष्ट लगता है. स्वाद या बे-स्वाद जैसा कुछ नहीं बचता.

जब कर्म करने का कारण उस कर्म का फल होता है तो हमारे कर्म करने का क्या तरीका होता है :

हम स्वस्थ्य से ज्यादा स्वाद को प्राथमिकता देते हैं. खाने में ज्यादा मीठा, मसालेदार खाना होता है. भूक लगे लगे, लेकिन अगर कोई स्वादिष्ट व्यंजन हमारे सामने जाये तो हम खाना शुरू कर देते हैं. यह जानते हुए कीइस तरह का खाना हमारे स्वस्थ्य के लिए नुकसान दायक है लेकिन हम स्वाद के एक तरह से गुलाम हो जाते हैं और बस इस तरह का खाना ही खाते रहते हैं. एक तरह से फ़र्ज़ निभाने की इच्छा शक्ति ही नहीं रहती.

इसका नतीजा क्या निकलता है :

हम धीरे धीरे स्वाद के लिए इतने बेचैन होने लगते हैं की हमे यह एहसास ही नहीं होता की हम कितना गलत खानाखाने लग गए हैं. बेचैनी इतनी बढ़ने लग जाती है की हम सिर्फ स्वादिष्ट खाने से संतुष्ट नहीं होते, हमे कुछ और चाहिए होता है, धीरे धीरे शराब, वगैरह पीने लग जाते हैं. हमे पता ही नहीं चलता है की कब हमने हमारी ही कब्र बना दी.


ऊपर दिए हुए उधाहरण में सच्चाई है, यह सिर्फ एक उधाहरण नहीं है. इसी तरह से हम हमारे सरे कर्म निभाते हैं. फ़र्ज़ से ज्यादा कर्म के फल पर हमारा ध्यान होता है. फर्क सिर्फ इतना है की यह उधाहरण आसानी से समझमे जाता है जबकि हमारे बहुत सरे कर्म समझमे नहीं आते इसलिए हमे पता भी नहीं चलता है की हम क्या गलत कररहे हैं. क्यों कर्म के फल पर ध्यान देने को भोग मना है वेदों में, क्योंकि ऐसा करके हम आखिर में भोग ही करते हैं.

कर्म फल को इश्वर को समर्पित करने का एक फ़ायदा और भी है की हमारे सरे पाप जो अनजाने में हुए हैं, वोह हमेभुगतने नहीं पड़ते. जबकि नियम यह है चाहे आपसे कोई पाप अनजाने में हुआ हो जैसे जब आप चलते हैं औरअगर कोई जीव-जंतु आपके पैरो के नीचे आकार मर जाये तो उसका पाप भी आपको भुगतना पड़ेगा. इस तरहहमसे कई पाप रोज़ होते हैं जिन्हें हमे भुगतना पड़ेगा लेकिन अगर हम हमारे कर्म को इश्वर को समर्पित करदे तोउस से बच सकते हैं. इस बारे में मनु स्मिरिती में विस्तार से लिखा गया है जिसकी चर्चा हम आगे कभी करेंगे.

खैर अगर आपको कर्म योगी बनना है तो फल की इच्छा को सबसे पहले त्यागना होगा. यह कैसे करना है, उसकेबारे में हम अगले अंक में चर्चा करेंगे. यह बहुत आसन नहीं है तो बहुत मुश्किल भी नहीं है. बस इरादा पक्का होनाचाहिए.

जय श्री कृष्ण !!!

Saturday, August 7, 2010

Geeta chapter - 2.12

भक्तजनों पिछले अंक में जिस श्लोक की चर्चा की थी उसी विषय पर श्री कृष्ण द्वारा आगे भी कुछ और श्लोक हैं। उसी पर इस अंक में हम चर्चा करेंगे।

भोगैश्वर्य प्रसक्तानाम तयापहर्ताचेत्सम
व्यवसयाक्त्मिका बुद्धिः समाधौ विधीयते !!!
MEANING : इन्द्रियों के सुख-भोग और सांसारिक सुख के बारे में सोंचते सोंचते उनका संकल्प टूट जाता है। उन्हें उस अलोकिक चेतना, ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती है जिससे वे अपने मन को इश्वर प्राप्ति में लगा सके।

त्रेगुन्यविशाया वेदा निस्त्रेय्गुन्यो भवार्जुन
निर्द्वन्द्वो नित्यासत्वस्थो निर्योगेक्षम आत्मवान !!!
MEANING : हे अर्जुन वेद विषय-वस्तु की तीन अवस्था के बारे में बात करते हैं। तुम्हे आत्म-ज्ञान प्राप्त कर इन तीन अवस्थाओ से परे जो अध्यात्मिक चेतना है उस में लीन हो कर अपने आप को राग-द्वेष, प्राप्ति और संग्रहण से मुक्त रखना है।

यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके
तावान सर्वेषु वेदेषु ब्रह्मंस्य विजानतः !!!
MEANING : जो कुछ एक गागर/कुआ दे सकता है, वही सब कुछ उससे बेहतर एक झील दे सकती है। इसी तरह एक आत्म-ज्ञानी को वैदिक कर्मकांड से मिलने वाले सुख-भोग से कही ज्यादा सुख मिलता।

भक्तजनों श्री कृष्ण कह रहे हैं की जो लोग सांसारिक सुख-भोग के बारे में ही सोंचते रहते हैं, वे कभी मोक्ष प्राप्ति के संकल्प पर कायम नहीं रह पाते। उनका वोह संकल्प सुख-भोग की भेंट चढ़ जाता है और टूट जाता है। वासना और भोग में लिप्त रहने की वजह से उन्हें उस अध्यात्मिक चेतना की प्राप्ति ही नहीं होती जिसकी मदत से वे अपने मन को इश्वर प्राप्ति में लगा सके। यह बिलकुल हम लोगो की ही बात हो रही है। हम लोग जब सत्संग में जाते है तो उस समय एक वेग में हम बहुत कुछ मन में ठान लेते हैं। मैं झूट नहीं बोलूँगा / रोज़ मंदिर जाऊंगा / महीने में एक बार तो ज़रूर किसी गरीब को दान करूँगा, etc etc. लेकिन जैसे ही सत्संग ख़त्म होता है और हम लोग घर वापस जाते है, हमारे सारे इरादे धरे के धरे रह जाते हैं। ज़िन्दगी भर के लिए उस संकल्प पर कायम रहना तो दूर, हम लोग एक दिन भी वैसा कुछ नहीं कर पाते। कभी आपने सोंचा है की ऐसा क्यों होता है। हम ईमानदारी के साथ संकल्प लेते है और उस पर कायम भी रहना चाहते है पर बहुत कोशिश करने पर भी वैसा कुछ भी नहीं कर पाते।
ऐसा इसलिए होता है की हम लोग एक वेग में आकर संकल्प तो ले लेते है पर यह नहीं समझते की हमारा मन अभी उतना परिपक्व नहीं हुआ है, अभी उसमे उतनी शक्ति नहीं है की वो इतना सब कुछ निभा ले। बिना इस बात को जाने हम बस संकल्प पे संकल्प लेते रहते हैं और कई सालो बाद बहुत बुरा लगता है की हमारी ज़िन्दगी के इतने साल निकल गए और हम जहाँ पहले थे आज भी वही के वही हैं। इसीलिए श्री कृष्ण कहते हैं की पहले आपने मन में वो अध्यात्मिक चेतना को आने दो जो आप में इश्वर भक्ति को जगाएगी, उसके बाद ही अध्यात्म में आगे बढ़ पाना संभव हो पायेगा।

अध्यात्मिक चेतना कैसे लायी जा सकती है उसके बारे में हम पिछले कुछ अंक में जान चुके है। कर्म योग से ही वो संभव है। आगे श्री कृष्ण कहते की वेद सुख/विषय-वस्तु की तीन अवस्था के बारे में बात करते हैं। वेदों में कई कर्मकांड का उल्लेख हैं जिनको विधि पूर्वक किया जाये तो कई सुख को भोगा जा सकता है। स्वर्ग और उससे भी बड़े ब्रह्मलोक के सुख-भोग की विधियाँ बताई गयी हैं वेदों में। लेकिन श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं की इन सुख-भोग में भटकने की बजाये अध्यात्मिक चेतना में लीन रह कर राग-द्वेष से परे रह कर प्राप्ति और संग्रहण से मुक्त रहना चाहिए। यहाँ पर सवाल आता है की अगर स्वर्ग या फिर सांसारिक सुख-भोग अगर त्याग देंगे तो जीना कितना मुश्किल हो जायेगा। और फिर अगर यह सुख-भोग इतने ही ख़राब हैं तो वेदों में इनके बारे में लिखा ही क्यों है। वेदों में उनके बारे में इसलिए लिखा है की आपको वैदिक कर्म के फल के बारे पता तो होना ही चाहिए। आप किसी को दान करेंगे तो आपको यह तो पता होना ही चाहिए की इसका क्या फल मिलेगा। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है की आप उसी में लिप्त हो जाये। रही बात की जीना मुश्किल हो जायेगा तो यह समझ ले की सुख-भोग त्यागने से यह मतलब नहीं है की आप अपनी ज़रूरत को पूरा करना ही छोड़ दे। अच्छे घर में रहना, आने जाने की सुविधा के लिए गाड़ी होना या फिर खाने पिने के लिए अच्छे पकवान होना, अपने परिवार और अपनी सुरक्षा के लिए इतना धन इक्कट्ठा करना के आगे ज़रूरत पड़ने पर काम आ सके, इन सब में कोई बात गलत नहीं है। यह सब तो आपकी ज़रूरत है और उनको तो पूरा करना ही पड़ेगा। लेकिन ज़रूरत पूरी होने पर भी अँधा-धुंध पैसे कमाना, इश्वर प्राप्ति की कोशिश ही नहीं करना, बस वासना और सुख-भोग में लगे रहना ज़रूर गलत है। और अगर इस तरह सांसारिक सुख के पीछे भागते रहेंगे तो कभी वो अध्यात्मिक चेतना नहीं आ पायेगी जिसके बारे में श्री कृष्ण अर्जुन को बता रहे हैं। उसके लिए पूरा मन लगा कर कोशिश करनी पड़ेगी। ज़रूरत और भोग में फर्क करना सीखना पड़ेगा। आज के समय में किसी भी समय कोई पैसे की दिक्कत आ सकती है इसलिए खूब पैसा होना गलत नहीं है लेकिन उसकी भी एक सीमा होती है। अरबो रुपये होने पर भी पैसे के पीछे भागना, खाने पिने में सात्विक भोजन की कमी होना, पूरा समय बस इसी सोंच में लगे रहना की आज ऐसा क्या किया जाये की मज़ा आ जाये, इस फिल्म में चले या उस पार्टी में जाये। इश्वर प्राप्ति में थोडा समय भी न लगाना तो ज़रूर गलत है। पार्टी में जाना, फिल्म देखना कोई गलत नहीं है लेकिन इश्वर प्राप्ति भी तो ज़रूरी है, उसके लिए भी तो मन में थोड़ी जगह बना कर रखिये।

आगे श्री कृष्ण कहते है की इन सब सुख-भोग से ज्यादा सुख इश्वर प्राप्ति में आता है। यह सांसारिक सुख तो सिर्फ एक गागर के समान है, इश्वर प्राप्ति तो पूरी झील के समान है। लेकिन यह बात सिर्फ पढ़ लेने पर समझ में नहीं आएगी। इसके लिए ही श्री कृष्ण अध्यात्मिक चेतना की बात करते हैं और कहते हैं की जब तक भोग में लगे रहोगे तब तक इन बातो का महत्व नहीं पता लगेगा। हमेशा यही लगता रहेगा की यह सब बेकार की बाते है, ज़िन्दगी जीने के लिए होती है उसे पुरे उत्साह के साथ जिनी चाहिए, यह अध्यात्म तो बूढ़े लोगो के लिए है। जवान लोगो को शादी, परिवार, नौकरी, व्यापार पर ध्यान देना चाहिए। जब तक भोग वासना में लिप्त रहोगे यही सब बाते मन में आएँगी। क्या परिवार, व्यापार/नौकरी के रहते इश्वर प्राप्ति के लिए थोडा समय भी नहीं निकाल सकते। क्या थोडा सा दान कर दिया और हो गया। बस इतना ही हो पाता है हमसे इश्वर के लिए। दान पुण्य नहीं भी करोगे तो चलेगा पर मन को काबू में करना ज़रूरी है। कई लोग इसी आस में रहते है की मरने तक खूब कमाओ और जब ज़िन्दगी के कुछ आखरी साल बचे हो तो अपनी सम्पति से आधा दान करदो। लेकिन भक्तजनों इस से कुछ नहीं होने वाला है। दान या दुसरे इसी तरह के वैदिक कर्म से इश्वर प्राप्ति नहीं होती और हमारा लक्ष्य इश्वर प्राप्ति है।

रही बात की अध्यात्म वगैरह तो बूढ़े लोगो के लिए है। तो मैं आपको बता दू की भगवत गीता में आगे योग पर भी कुछ श्लोक आयेंगे जिसमे श्री कृष्ण योग के बारे में अर्जुन को बताते हैं। और अगर जवान रहते योग और मन को काबू में करना शुरू नहीं किया तो बूढ़े हो कर तो कुछ भी नहीं कर पाएंगे। अध्यात्म तो एक सपना बन कर ही रह जायेगा। प्राणायाम करना तो दूर की बात है, सांस लेने में ही तकलीफ होगी बुढ़ापे में तो फिर योग कहाँ से कर पाएंगे। अगर कोई जवान लड़का राम का नाम ले ले तो लोग उससे पूछते हैं की बूढ़े की तरह क्यों राम राम कर रहे हो. काम धाम करो यह क्या पागल की तरह राम राम कर रहे हो. लेकिन वे लोग यह भूल जाते हैं की बुढ़ापे में जब आपने बत्तीस दांत ही गिर जायेंगे और अपनी औलाद का नाम लेना ही मुश्किल हो जायेगा तो राम नाम कहाँ से लोगे. आज कई लोग योग की शक्ति को पहचान कर जवानी से ही योग करते हैं और अपने बच्चो को भी सिखाते हैं, तो क्या वे लोग पागल है, क्या वे लोग अपने नौकरी/व्यापार में तरक्की नहीं करते। क्या उन्होंने जीना छोड़ दिया। अगर आपने उन भोगी लोगो की बातो में आकर अपनी जवानी भोग और बेकार के कामो में लगा दी तो बुढ़ापे में बहुत पछतायेंगे। इस विषय पर विस्तार से चर्चा करेंगे जब श्री कृष्ण के योग पर कहे गए श्लोक आयेंगे।

कुछ खास बाते याद रखिये। अध्यात्म का कोई भी काम एक दम से शुरू न करे। एक दम से दान, मन को काबू में करना, या फिर कोई और अध्यात्मिक काम न करे। छोटी छोटी कोशिश करना शुरू करे और धीरे धीरे कुछ साल का समय ले इन सब कामो को करने के लिए। योग से शुरुवात करना सबसे सुरक्षित रहता है क्योंकि दान वगैरह में कई लोग भावना में बहकर अपना सब कुछ गवा बैठते हैं। या फिर जोश में आकर बिना होश के मन को काबू में करने के चक्कर में अपना नुकसान कर बैठते हैं। इसलिए छोटी छोटी कोशिश ही करे।

अगले अंक में कुछ और श्लोक की चर्चा करेंगे।

जय श्री कृष्ण !!!

Saturday, July 31, 2010

Geeta chapter - 2.11

भक्तजनों इस अंक में हम बात करेंगे उस श्लोक की जो आज के ज़माने के लोगों पर बिलकुल fit होता है और आपको हमेशा याद रखना है जब भी आप कोई धार्मिक ग्रन्थ पढ़ें तो इस श्लोक को ज़रूर याद रखें

यामिमां पुष्पितं वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः
वेदवादर्तः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः !!!
MEANING : हे अर्जुन जो लोग अज्ञानी हैं और जिनकी समझ सीमित है, वे लोग धार्मिक ग्रंथो का मन-माफिक मतलब निकालते है हमेशा इस बात की तरफदारी करते हैं की सृष्टि के निर्माण में कोई अलौकिक कारण नहीं है मन में भोग-वासना होते हुए यह लोग सुख-भोग के लिए वैदिक ग्रंथों में से केवल उन श्लोकों को बढ़ा चढ़ा कर लोगों के सामने पेश करते हैं जो इन्हें अच्छे लगते हैं ऐसे लोग यज्ञ आदि कर्मकांड भी इसीलिए करवाते हैं की इन्हें अच्छी संतान, दौलत, शोहरत, और कई सांसारिक सुख मिल सके

भक्तजनों इस श्लोक में श्री कृष्ण साफ़ साफ़ हम जैसे अज्ञानी लोगों की तरफ इशारा कर रहे हैं हम लोग जो हमारे आलस्य, और सांसारिक सुख-भोग के लिए हर वैदिक कर्मकांड का तोड़-मरोड़ कर अर्थ निकालते हैं ताकि हमे पूजा-पाठ नहीं करना पढ़े, मंदिर नहीं जाना पढ़े, etc etc. खैर यह सब तो छोटी छोटी गलतियाँ हैं जो थोड़ी सी कोशिश करने पर सुधारी जा सकती हैं लेकिन आजकल तो धार्मिक ग्रंथों का ऐसा इस्तेमाल होने लगा है की बस जिसकी जो मर्ज़ी आई वो उसका वैसा मतलब निकालता है लोगो की और समाज की भलाई की कोई परवाह नहीं है

आजकल एक नया trend शुरू हो गया है धार्मिक ग्रंथों को modernize करने का उनके अर्थ को dilute करने का अरे भाई जब वेदों को अटल सत्य माना है तो उनके मतलब को बदल कर बताना कहाँ तक ठीक है जो बात अटल है वो किसी भी ज़माने में बदलेगी नहीं, वर्ना उन बातों पर विश्वास ही नहीं होगा ढोंगी लोग लोगों की श्रद्धा के साथ खिलवाड़ कर रहे है, कोई business के लिए श्लोको और घटनाओ को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहा है तो कोई किसी और बात के लिए सही बात करने वाले को दकियानूसी और पुराने ख़यालात का बता दिया जाता है.

कुछ लोग धार्मिक ग्रंथो में से सिर्फ उन बातों को समझते हैं जिसमे स्वर्ग के सुख भोग के बारे में बताया जाता है आज की बात और है क्योंकि आज कोई स्वर्ग वगैरह को मानता नहीं है लेकिन जिस समय इन बातों का महत्व था उस समय लोग स्वर्ग जाने के लिए कई यज्ञ आदि करवाते थे जबकि वेद इस बात को साफ़ साफ़ कहते है की उस परमात्मा में विलीन होने से पूर्व जितने भी सुख मिलते हैं वोह सब कुछ समय के लिए ही रहेंगे और एक दिन फिर पृथ्वी लोक में ही जन्म लेना पड़ेगा फिर चाहे ब्रह्मलोक ही क्यों हो उस समय जो लोग इस तरह के यज्ञ नहीं करवाते थे उन्हें उस समय का समाज "सीधा" मानता था जो जिंदगी में तकलीफ उठाते हैं मोक्ष के लिए अपने लाभ के लिए धर्म कार्य नहीं करते

ज़माना बदल गया और धीरे धीरे लोग यज्ञ के कई रहस्य भूल गए और फलस्वरूप यज्ञ करवाना ही बंद कर दिया लेकिन धार्मिक ग्रन्थ का अपने फयिदे के लिए इस्तेमाल करना नहीं छोड़ा
आज कई लोग हैं जो भोले भले लोगों से पैसे ठगने के लिए ग्रंथो का इस्तेमाल करते हैं कई ढोंगी बाबा इस तरह खूब पैसे कमाते हैं यह तो हुई सीधे सीधे चोरी की बात लेकिन कई लोग तो अनजाने में भी धार्मिक ग्रंथो का गलत इस्तेमाल कर रहे हैं
आज आप देखेंगे तो कुछ विदेशी universities में bible, गीता और कुछ धार्मिक ग्रंथो को management के छात्रो को management के गुर सिखाने के लिए पढाया जाता है इन ग्रंथो में से सिर्फ वो श्लोक पढाये जाते हैं जो उनके मतलब के होते हैं, बाकि के श्लोकों का या तो मन-घडन्त मतलब निकाल लिया जाता है या फिर बताया ही नहीं जाता श्री कृष्ण के युद्ध के लिए अर्जुन को तैयार करने की घटना को इतना बढ़ा चढ़ा दिया जाता है की कोई असली मतलब ही भूल जाये छात्रो को समझाया जाता है की जिस तरह से श्री कृष्ण ने धर्म को सबसे ऊपर माना उसी तरह बिज़नस में सबसे ऊपर profit होता है Jesus ने जिस तरह से भेड़ बकरियों से अपने जीवन को चलाया उसी तरह छोटी छोटी technology से बड़े बड़े बिज़नस के मौके मिल सकते हैं इस तरह से बिज़नस के कई फोर्मुले ग्रंथो के दुआरा सिखाया जाता है उन छात्रों को यह नहीं बताया जाता है की जिन कृष्ण की युद्ध वाली बात को वे इतना पसंद कर रहे है उन्ही कृष्ण ने पहले दुर्योधन के सामने यह प्रस्ताव रखा था की वे उनकी सेना की तरफ से लड़ेंगे लेकिन दुर्योधन के मना करने के बाद ही वे अर्जुन की सेना में शामिल हुए थे

खैर वो मैनेजमेंट के लोग जान-बुज कर धार्मिक ग्रथो के साथ खिलवाड़ नहीं करते, उनका मकसद तो छात्रों को पढाना होता है लेकिन धार्मिक ग्रन्थ श्रद्धा के योग्य है उनका इस तरह का इस्तेमाल उनके प्रति श्रद्धा को कम कर देगा।

जो ग्रन्थ घर पर पूजनीय होता है वोह किसी library में timepass की किताब बन कर रह जायेगा।

जब खुद श्री कृष्ण यह बात कह रहे हैं की वेदों का सिर्फ एक ही मकसद है और वो है मुक्ति का रास्ता दिखाना तो फिर हम कौन होते हैं जो उन बातो का दूसरा ही मतलब निकालते हैं। आज के ज़माने में यह नहीं चलेगा, वोह नहीं चलेगा, इस तरह की बेकार की बातो में क्या रखा है। हमने अपने आपको ऐसा बना लिया है इसलिए हमारे लिए कुछ नहीं चलता वर्ना तो वेदों की बाते हर युग के लिए है न की सिर्फ उस समय का लिए।


ज्यादा कुछ लिखने के लिए समय नहीं है लेकिन फिर भी आप लोगों को यह तो समझमे आ ही गया होगा की वेद पूजनीय होते हैं। उनका मतलब हमसे ज्यादा वोह ऋषि-मुनि समझते थे जिन्होंने उनके बारे में कई बाते लिखी हैं। पहले हम अपनी औकात उनके बराबर की करले फिर उनसे competition करने की सोचना चाहिए।


जय श्री कृष्ण !!!