Tuesday, August 31, 2010

Geeta chapter - 2.15

भक्तजनों कुछ दिनों से मैंने कुछ नहीं लिखा है. थोडा बीमार हो गया था. मुझसे वैभाव्जी ने अच्छा सवाल पुचा था. श्री कृष्ण कर्म की बात करते हैं, कर्त्तव्य की बात करते हैं, लेकिन गौतम बुद्ध ने अपना राज-पात, परिवार छोड़ दिया था और जंगले में चले गए थे. दोनों को महँ मन जाता है. लेकिन दोनों ने एक दुसरे से बिलकुल विपरीत काम किये. तो फिर दोनों में से सही कौन. सही दोनों ही हैं. फ़र्ज़ निभाने का मतलब किसी ख़ास काम को करना नहीं होता है, अगर ऐसा होता तो सरे लोग अपने परिवार को एक ही तरीके से पलते. मकसद होना चाहिए की परिवार खुश रहे, उनका भरण पोषण होता रहे. तकलीफ न हो. इस तरह से कोई भी फ़र्ज़ उन्होंने करने से मन नहीं किया. राज-पट उनके पिता का था इसलिए प्रजा के प्रति उनकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं थी, वे खुद भी अगर रजा होते और सन्यास लेने के लिए राज-पट किसी और को सौप देते तो भी चलता. मकसद तो प्रजा की देख भाल के साथ ही ख़त्म हो जाता है. जिस समय
उन्होंने ने सन्यास लिया था उस समय वे युवराज थे, परिवार का भरण पोषण करना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी, ऊपर से परिवार कोई ऐतराज़ भी नहीं था.

वो ज़माना ही ऐसा था जब लोग सन्यास को जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काम मानते थे. गौतम बुद्ध ने किसी को बे-सहारा छोड़ कर सन्यास नहीं लिया था. ऐसा कोई फ़र्ज़ नहीं था जिसे वे अधुरा छोड़ कर सन्यास ले रहे थे. और इस पर भी इश्वर प्राप्ति ही हमारा सबसे बड़ा फ़र्ज़ है.

इसके बिलकुल विपरीत अर्जुन कर रहे थे. सेना लड़ने को तैयार है, सब जानते थे की अर्जुन के बिना युद्ध जीतना नामुमकिन है, प्रजा को दुर्योधन जैसे जुल्मी रजा के हटो में छोड़ कर सन्यासी बन जाना तो बहुत गलत है. उनकी प्रजा को सँभालने वाला कौन था, उनके बड़े भाई ज़रूर थे, लेकिन उसके लिए युद्ध
जीतना भी तो ज़रूरी था. इस पर भी सन्यास का कारन मोक्ष न होकर वे सिर्फ अपने सम्बंधियो को मरने से लगने वाले पाप से बचना चाहते थे. ऐसे तो मुक्ति संभव नहीं है भाई. द्रौपती तो बिलकुल उनके सन्यास लेने के विपरीत थी. और तो और अगर सन्यास लेना ही था तो शादी करी ही क्यों. करी भी तो उस से जो आपके सन्यास से खुश न हो, तो फिर उसको दुखी कर के तो जा नहीं सकते.

कहने का मतलब यही है की या तो ज़िम्मेदारी में बंधे ही नहीं, और अगर अपने खुद ज़िम्मेदारी उठाई है और आपके भरोसे कोई आपके साथ आ गया है तो फिर उसका साथ दे. अगर किसी को आपकी ज़रूरत है तो आप मन नहीं कर सकते. यह बाते चर्चा करने पर ही समझमे आएँगी. सिर्फ में ही में बोलता रहूँगा तो
समझमे नहीं आएँगी.

अगर संक्षिप्त में कहे तो सन्यास लेना भी ज़रूरी है, कभी भारत में यह एक आम बात थी. लोग कशी जाया करते थे. लेकिन फ़र्ज़ और सन्यास में तालमेल बिठाना आता था उनको. जैसे हम जब चलते हैं तो कई जीव-जंतु हमारे पैरो के निचे आकर मर जाते है. उसका हम कुछ नहीं कर सकते, लेकिन जानते भुजते तो नहीं करना चाहिए. उसी तरह सन्यास तो लेना ही है लेकिन यह जानते हुए की ऐसा करने पर कोई अनाथ हो जायेगा, किसी का कोई और नुकसान हो जायेगा, और हम फिर भी सन्यास ले तो सही नहीं है न. एक तालमेल बिठा कर करे तो सब सुखी हो जायेंगे. थोडा दुसरो को भी समझना चाहिए की उनके भोग में किसी का सन्यास तो नहीं बिगड़ना चाहिए, थोडा आपको भी समझना चाहिए की अपनी कुछ जवाबदारी है किसी के प्रति, उनको पूरा करते ही सन्यास ले लेंगे.

जय श्री कृष्ण !!!

Friday, August 27, 2010

Mistake in the previous edition

भक्तजनों पिछले अंक में एक गलती हो गयी थी. मैंने गलती से वर्ण व्यवस्था लिख दिया था. उस व्यवस्था को वर्ण व्यस्था नहीं बल्कि आश्रम व्यस्था कहते हैं. चार भाग होते हैं इस व्यस्था में - ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम. कृपया उसे इसी अनुसार पढ़े।

जय श्री कृष्ण !!!

Saturday, August 21, 2010

Geeta chapter - 2.14

भक्तजनों पिछले अंक से चर्चा आगे बढ़ाते हैं और बात करते हैं की इश्वर को अपने कर्म कैसे समर्पित कर सकते है, कैसे फल की इच्छा के बिना कर्म कर सकते हैं।

भक्तजनों मुझसे किसी ने facebook पर सवाल किया था की वे भगवत गीता में लिखे अनुसार जीना चाहते हैं और क्या इसके लिए किसी गुरु की शरण में जाना सही रहेगा क्या। भक्तजनों जैसा की मैंने कई बार कहा है की एक दम से इतना बड़ा फैसला लेना सही नहीं हैयह बात सही है की गुरु बिन हरी नहीं मिलते लेकिन उसके लिए बहुत तय्यारी करनी पड़ती है। इन सब बातो को ही हम कर्म योग में जानेंगे।

कर्म योग है क्या और हमारी कैसी मानसिकता होनी चाहिए जब हम कर्म योग को अपने जीवन में उतारना चाहते हैं। भक्तजनों आप यह तो जानते ही होंगे की हमारे हर कर्म का कोई फल होता है और उसे हमे भुगतना होता है। फिर वो कर्म चाहे हमसे अनजाने में हुआ हो या जानते भुजते। अगर भलाई की होगी तो अच्छा फल मिलेगा और अगर गलत काम किया होगा तो सजा। हमने यह भी चर्चा की थी की अच्छे कर्म का बंधन भी ठीक बात नहीं है। तो कर्म योग में हम यही जानेंगे की कर्म करते हुए भी हम कैसे उसके बंधन से मुक्त हो सकते है।

श्री कृष्ण कहते है की अगर हर कर्म इश्वर को समर्पित कर दिया जाये तो उस कर्म के बंधन में हम नहीं बंधते। इस बात को समझने के लिए हमे मनु स्मृति में लिखे हुए कुछ अंश का सहारा लेना पड़ेगा। उसमे भोजन बनाते और खाते वक़्त जो हमसे पाप होते हैं उनसे बचने का उपाय बताया गया है। उसमे कहा गया है जब भी आप खाना खाते हैं या उसे बनाते हैं तो उसे शुरू करने से पहले इश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए की यह भोजन तो आपके लिए लगाया जाने वाला भोग है और हम इसे प्रसाद समझकर खा रहे हैं। इश्वर को धन्यवाद् देना चाहिए की वे हमे भोजन उपलब्ध करवाकर हमारे जीवन यापन के लिए कृपा कर रहे हैं। भोजन को भी देवता मानकर उसके हाथ जोड़ने के बाद ही खाना चाहिए। एक तरह से कृतज्ञता जतानी चाहिए। यह भोजन आपको समर्पित है और हम आपके बाद ही उसे खाते हैं। ऐसा करने से घर में अनजाने में जो जीव-जंतु जो पानी पीते वक़्त या घर की सफाई करते हुए जो कीड़े मरते हैं या फिर भोजन बनाते हुए जो कीड़े मरते हैं उनका पाप हमे नहीं लगता। ऐसा मनु स्मृति में बताया गया है। ऐसा इसलिए है की हम भोजन हमारे स्वाद की तृष्णा के लिए नहीं बल्कि इश्वर को भोग लगाने के लिए बना रहे हैं और क्योंकि यह कर्म इश्वर को समर्पित है इसलिए इसको करते वक़्त जो भी पाप होता है उसका पाप हमे नहीं लगता। लेकिन भक्तजनों इस बात में ईमानदारी होनी चाहिए। अगर भोजन खाने से पहले इश्वर को भोग लगा रहे हैं तो पुरे मन से काम करे, ऐसा मानकर करे की सही में इश्वर ही खा रहे हैं और अगर आप ईमानदारी से ऐसा मानेंगे तो उन्हें मांसाहारी भोजन या फिर सात्विक भोजन के आलावा कुछ नहीं चढ़ाएंगे। अगर आप स्वाद के लिए तामसिक या मांसाहारी भोजन बनाकर सिर्फ इश्वर को भोग लगाने का नाटक करेंगे तो फिर पाप दुगना भोगना पड़ेगा। कर्म योग में ईमानदारी जरुरी है।

में आपको एक कथा सुनाता हु। एक ब्रह्मण का बच्चा होता है जिसे उनके ऋषि पिता बचपन से यह सिखाते हैं की खाने से पहले इश्वर को भोग लगाना चाहिए। वो बच्चा ऐसा ही करता है। कुछ साल बाद वोह बड़ा हो जाता है। एक दिन कोई उसके खाने में ज़हर मिला देता है। वो लड़का इश्वर को भोग लगता है और जब उसकी नज़र उस खाने के बर्तन पर जाती है तो उसके नीले पड़े हुए रंग से वो समझ जाता है की किसी ने इसमें ज़हर मिला दिया है। लेकिन वो यह सोंचता है की जब मेरे भगवन ने यह खा लिया तो में कैसे अब मना कर सकता हु और वो भोजन खा लेता है। लेकिन इश्वर तो ऐसे भक्त को कुछ होने ही नहीं दे सकते इसलिए वो बच जाता है। इसीलिए में कह रहा हु की ईमानदारी हो तो फिर ऐसी होनी चाहिए।

जैसा मैंने खाने के लिए कर्म योग को बताया है वैसा ही सारे कर्म करने के लिए करना चाहिए। यहाँ पर सवाल आता है की हम ईमानदारी से ऐसा करने की कोशिश कर सकते हैं लेकिन आज के ज़माने में कोई न कोई गलती हो ही जाती है तो फिर उस पाप से हम कैसे बचेंगे। इसी समस्या के लिए शाश्त्रो में बताया गया है की जब आपकी साडी कोशिशो के बाद भी आपसे कोई गलत काम हो रहा है तो आप इश्वर से प्रार्थना करे की हे प्रभु मेरा यह कर्म तो आपको समर्पित है लेकिन मेरे लाख चाहने पर भी में इस गलत काम को करने से बच नहीं पा रहा हु। ऐसा करने पर आप उस पाप से मुक्त हो जायेंगे। लेकिन अपने सही में ईमानदारी से उस गलत काम से बचने की कोशिश करी होनी चाहिए।
आप यह नहीं कह सकते की हे भगवन मेरी तो मज़बूरी है चोरी करना वरना मेरे बच्चे अच्छे घर में नहीं रह सकते, गाड़ी घोड़े नहीं चला सकते। ऐसा करोगे तो बहुत पाप लगेगा। पहले ईमानदारी से सारे काम करने की कोशिश करनी चाहिए और अगर कोई रास्ता ही नहीं बचा हो और अगर आपके बच्चे बिलकुल मरने की हालत में पहुँच गए हो तभी आप कोई गलत काम कर सकते है और उसका प्रायश्चित भी आपको करना चाहिए। इश्वर से माफ़ी मांगना आपके लिए गलत काम करने का बहाना नहीं बनना चाहिए।

और क्योंकि आप हर काम इश्वर को समर्पित कर रहे हो इसलिए सिर्फ अच्छे काम ही आप कर सकते हैं। जिस तरह से भोजन सिर्फ सात्विक ही बनाना चाहिए उसी तरह से काम भी धार्मिक और कर्त्तव्य पूर्ण होने चाहिए। यह नहीं की पुरे दिन मौज मस्ती लगा रखी हो और फिर यह उम्मीद करे की इश्वर हमारा बेडा पार करेंगे। जितना यह सब समझने में आसान लगता है उतना करने में मुश्किल है। भोजन जैसी चीजो से शुरू करके धीरे धीरे सारे कामो को सुधारना चाहिए। कई लोग इसे भोजन तक ही सीमित रखते है और जब वे अपने परिवार की और समाज की जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाते है तो उसके बाद वे अपने दुसरे कामो को सुधरने के कोशिश शुरू करते हैं। यानि की बुढ़ापे में। लेकिन उसके लायक नीव वे अपनी जवानी के दिनों से ही डाल लेते है ताकि बुढ़ापे में यह सब करने में ज्यादा मुश्किल न हो। इसे वर्ण व्यवस्था कहते है जो हम जैसे ग्रहस्थो के लिए ऋषि मुनियों ने बनायीं थी। इसके बारे में हम और कभी चर्चा करेंगे।

कर्म योग मतलब आपका हर कर्म अच्छा हो और इश्वर समर्पित हो। शरीर को मंदिर समझे, खाने को इश्वर को लगने वाला भोग, अपने ऑफिस के काम को इश्वर की पूजा समझकर करे। इस तरह आपका हर कर्म इश्वर को समर्पित हो जायेगा। लेकिन जैसा मैंने कहा की अगर आप अपने काम इश्वर के काम मानकर करते है तो फिर उसमे वोह ईमानदारी और भक्ति भी होनी चाहिए।

अगले अंक में श्लोक पर चर्चा होगी।

जय श्री कृष्ण !!!

Tuesday, August 17, 2010

Geeta chapter - 2.13

भक्तजनों इस श्लोक को आपने कई बार सुना होगा. आज सिर्फ इस एक श्लोक पर चर्चा करेंगे

कर्मन्येवाधिकरास्ते माँ फलेषु कदाचन
माँ कर्म्फल्हेतुर्भुर माँ ते संगोस्त्वकर्मानी !!!
MEANING : तुम्हे अपने सारे कर्म करने का अधिकार है लेकिन उनके फल पर कोई अधिकार नहीं. कभी भी कर्म के फल से प्रेरित होकर कोई भी कर्म नहीं करना चाहिए और ही किसी मोह की वजह से किसी कर्त्तव्य को करने से मना करना चाहिए.

श्री कृष्ण कह रहे हैं की हमे सारे कर्म करने की आज़ादी होती है लेकिन उनके फल पर नहीं इसलिए फल को हमेशा इश्वर की मर्ज़ी पर छोड़ देना चाहिए. उस कर्म का कोई भी फल हो, उस फल को इश्वर की मर्ज़ी समझकर स्वीकार लेना चाहिए. इस तरह हम उस कर्म के बंधन से मुक्त हो जाते हैं.
श्री कृष्ण आगे कहते हैं की हमे कभी भी कर्म के फल से प्रेरित होकर कर्म नहीं करना चाहिए और ही किसी कर्म को करने का कारण उस कर्म का फल होना चाहिए. अगर वो कर्म आपका फ़र्ज़ है तो उस कर्म को सिर्फ इसलिए नहीं त्यागना चाहिए की उसका फल आपकी इच्छा के अनुसार नहीं है. फल कभी भी कर्म को करने या करने का कारण नहीं होना चाहिए.

इस बात को मई एक उधाहरण से समझाता हु.

हम भोजन करते हैं. हमारा फ़र्ज़ है की हम हमारे शरीर को स्वस्थ रखे. अच्छा भोजन अच्छे स्वस्थ्य की कुंजी है. हम भोजन अगर हमारा फ़र्ज़ समझ कर भी करे तो भी हमे भोजन से स्वाद ज़रूर आएगा. कहने का मतलब है की अगर कर्म फ़र्ज़ समझ कर करोगे तो भी उसका फल आपको मिलेगा ही. इसलिए फल की चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं.

यहाँ पर इस उधाहरण में कुछ बातो को इस तरह से समझिये.

हमारा फ़र्ज़ : शरीर को स्वस्थ रखना.
उसके लिए कौन सा कर्म करना है : अच्छा और सात्विक भोजन करना.
इस कर्म का क्या फल है : उस भोजन से मिलने वाला स्वाद.

ऊपर दिए गए कर्म में प्रकृति का क्या नियम है :

हमे हमारे शरीर के स्वस्थ्य के लिए तरह-तरह के भोजन करने होते हैं ताकि हमारे शरीर को पोषण मिल सके. कभी स्वादिष्ट भोजन तो कभी बे-स्वाद भोजन करना पड़ता है. कभी कभी तो करेले का रस भी पीना पड़ता है लेकिन उस से शरीर को बहुत फाईदा होता है. फल(स्वाद) चाहे अच्छा हो या बुरा लेकिन फ़र्ज़ के लिए करना पड़ता है.

जब हमारा लक्ष्य फ़र्ज़ निभाना होता है तो हमारे कर्म करने का क्या तरीका होता है :

हम खाने में ज्यादा मसाला/तेल वगैरह का इस्तेमाल नहीं करते, यह जानते हुए की इस से स्वाद कम हो जायेगा लेकिन फिर भी हम स्वाद की चिंता किये बिना सिर्फ अच्छे भोजन पर ही धयान देते हैं. बे-स्वाद चीजो से भागने की बजाई हम उसे सेहन करते हैं. इस बात को मानते हैं की यह सब तो खाना ही पड़ेगा अगर अच्छा स्वस्थ चाहिए तो. मन का इरादा पक्का होता है. कर्म करना है मतलब करना है, चाहे कुछ भी सहना पड़े.

इसका नतीजा क्या निकलता है :

नतीजतन हमारा स्वस्थ्य अच्छा होता है. हम भूक लगने पर ही खाना खाते है इसलिए बे-स्वाद खाना भी स्वादिष्ट लगता है. स्वाद या बे-स्वाद जैसा कुछ नहीं बचता.

जब कर्म करने का कारण उस कर्म का फल होता है तो हमारे कर्म करने का क्या तरीका होता है :

हम स्वस्थ्य से ज्यादा स्वाद को प्राथमिकता देते हैं. खाने में ज्यादा मीठा, मसालेदार खाना होता है. भूक लगे लगे, लेकिन अगर कोई स्वादिष्ट व्यंजन हमारे सामने जाये तो हम खाना शुरू कर देते हैं. यह जानते हुए कीइस तरह का खाना हमारे स्वस्थ्य के लिए नुकसान दायक है लेकिन हम स्वाद के एक तरह से गुलाम हो जाते हैं और बस इस तरह का खाना ही खाते रहते हैं. एक तरह से फ़र्ज़ निभाने की इच्छा शक्ति ही नहीं रहती.

इसका नतीजा क्या निकलता है :

हम धीरे धीरे स्वाद के लिए इतने बेचैन होने लगते हैं की हमे यह एहसास ही नहीं होता की हम कितना गलत खानाखाने लग गए हैं. बेचैनी इतनी बढ़ने लग जाती है की हम सिर्फ स्वादिष्ट खाने से संतुष्ट नहीं होते, हमे कुछ और चाहिए होता है, धीरे धीरे शराब, वगैरह पीने लग जाते हैं. हमे पता ही नहीं चलता है की कब हमने हमारी ही कब्र बना दी.


ऊपर दिए हुए उधाहरण में सच्चाई है, यह सिर्फ एक उधाहरण नहीं है. इसी तरह से हम हमारे सरे कर्म निभाते हैं. फ़र्ज़ से ज्यादा कर्म के फल पर हमारा ध्यान होता है. फर्क सिर्फ इतना है की यह उधाहरण आसानी से समझमे जाता है जबकि हमारे बहुत सरे कर्म समझमे नहीं आते इसलिए हमे पता भी नहीं चलता है की हम क्या गलत कररहे हैं. क्यों कर्म के फल पर ध्यान देने को भोग मना है वेदों में, क्योंकि ऐसा करके हम आखिर में भोग ही करते हैं.

कर्म फल को इश्वर को समर्पित करने का एक फ़ायदा और भी है की हमारे सरे पाप जो अनजाने में हुए हैं, वोह हमेभुगतने नहीं पड़ते. जबकि नियम यह है चाहे आपसे कोई पाप अनजाने में हुआ हो जैसे जब आप चलते हैं औरअगर कोई जीव-जंतु आपके पैरो के नीचे आकार मर जाये तो उसका पाप भी आपको भुगतना पड़ेगा. इस तरहहमसे कई पाप रोज़ होते हैं जिन्हें हमे भुगतना पड़ेगा लेकिन अगर हम हमारे कर्म को इश्वर को समर्पित करदे तोउस से बच सकते हैं. इस बारे में मनु स्मिरिती में विस्तार से लिखा गया है जिसकी चर्चा हम आगे कभी करेंगे.

खैर अगर आपको कर्म योगी बनना है तो फल की इच्छा को सबसे पहले त्यागना होगा. यह कैसे करना है, उसकेबारे में हम अगले अंक में चर्चा करेंगे. यह बहुत आसन नहीं है तो बहुत मुश्किल भी नहीं है. बस इरादा पक्का होनाचाहिए.

जय श्री कृष्ण !!!

Saturday, August 7, 2010

Geeta chapter - 2.12

भक्तजनों पिछले अंक में जिस श्लोक की चर्चा की थी उसी विषय पर श्री कृष्ण द्वारा आगे भी कुछ और श्लोक हैं। उसी पर इस अंक में हम चर्चा करेंगे।

भोगैश्वर्य प्रसक्तानाम तयापहर्ताचेत्सम
व्यवसयाक्त्मिका बुद्धिः समाधौ विधीयते !!!
MEANING : इन्द्रियों के सुख-भोग और सांसारिक सुख के बारे में सोंचते सोंचते उनका संकल्प टूट जाता है। उन्हें उस अलोकिक चेतना, ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती है जिससे वे अपने मन को इश्वर प्राप्ति में लगा सके।

त्रेगुन्यविशाया वेदा निस्त्रेय्गुन्यो भवार्जुन
निर्द्वन्द्वो नित्यासत्वस्थो निर्योगेक्षम आत्मवान !!!
MEANING : हे अर्जुन वेद विषय-वस्तु की तीन अवस्था के बारे में बात करते हैं। तुम्हे आत्म-ज्ञान प्राप्त कर इन तीन अवस्थाओ से परे जो अध्यात्मिक चेतना है उस में लीन हो कर अपने आप को राग-द्वेष, प्राप्ति और संग्रहण से मुक्त रखना है।

यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके
तावान सर्वेषु वेदेषु ब्रह्मंस्य विजानतः !!!
MEANING : जो कुछ एक गागर/कुआ दे सकता है, वही सब कुछ उससे बेहतर एक झील दे सकती है। इसी तरह एक आत्म-ज्ञानी को वैदिक कर्मकांड से मिलने वाले सुख-भोग से कही ज्यादा सुख मिलता।

भक्तजनों श्री कृष्ण कह रहे हैं की जो लोग सांसारिक सुख-भोग के बारे में ही सोंचते रहते हैं, वे कभी मोक्ष प्राप्ति के संकल्प पर कायम नहीं रह पाते। उनका वोह संकल्प सुख-भोग की भेंट चढ़ जाता है और टूट जाता है। वासना और भोग में लिप्त रहने की वजह से उन्हें उस अध्यात्मिक चेतना की प्राप्ति ही नहीं होती जिसकी मदत से वे अपने मन को इश्वर प्राप्ति में लगा सके। यह बिलकुल हम लोगो की ही बात हो रही है। हम लोग जब सत्संग में जाते है तो उस समय एक वेग में हम बहुत कुछ मन में ठान लेते हैं। मैं झूट नहीं बोलूँगा / रोज़ मंदिर जाऊंगा / महीने में एक बार तो ज़रूर किसी गरीब को दान करूँगा, etc etc. लेकिन जैसे ही सत्संग ख़त्म होता है और हम लोग घर वापस जाते है, हमारे सारे इरादे धरे के धरे रह जाते हैं। ज़िन्दगी भर के लिए उस संकल्प पर कायम रहना तो दूर, हम लोग एक दिन भी वैसा कुछ नहीं कर पाते। कभी आपने सोंचा है की ऐसा क्यों होता है। हम ईमानदारी के साथ संकल्प लेते है और उस पर कायम भी रहना चाहते है पर बहुत कोशिश करने पर भी वैसा कुछ भी नहीं कर पाते।
ऐसा इसलिए होता है की हम लोग एक वेग में आकर संकल्प तो ले लेते है पर यह नहीं समझते की हमारा मन अभी उतना परिपक्व नहीं हुआ है, अभी उसमे उतनी शक्ति नहीं है की वो इतना सब कुछ निभा ले। बिना इस बात को जाने हम बस संकल्प पे संकल्प लेते रहते हैं और कई सालो बाद बहुत बुरा लगता है की हमारी ज़िन्दगी के इतने साल निकल गए और हम जहाँ पहले थे आज भी वही के वही हैं। इसीलिए श्री कृष्ण कहते हैं की पहले आपने मन में वो अध्यात्मिक चेतना को आने दो जो आप में इश्वर भक्ति को जगाएगी, उसके बाद ही अध्यात्म में आगे बढ़ पाना संभव हो पायेगा।

अध्यात्मिक चेतना कैसे लायी जा सकती है उसके बारे में हम पिछले कुछ अंक में जान चुके है। कर्म योग से ही वो संभव है। आगे श्री कृष्ण कहते की वेद सुख/विषय-वस्तु की तीन अवस्था के बारे में बात करते हैं। वेदों में कई कर्मकांड का उल्लेख हैं जिनको विधि पूर्वक किया जाये तो कई सुख को भोगा जा सकता है। स्वर्ग और उससे भी बड़े ब्रह्मलोक के सुख-भोग की विधियाँ बताई गयी हैं वेदों में। लेकिन श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं की इन सुख-भोग में भटकने की बजाये अध्यात्मिक चेतना में लीन रह कर राग-द्वेष से परे रह कर प्राप्ति और संग्रहण से मुक्त रहना चाहिए। यहाँ पर सवाल आता है की अगर स्वर्ग या फिर सांसारिक सुख-भोग अगर त्याग देंगे तो जीना कितना मुश्किल हो जायेगा। और फिर अगर यह सुख-भोग इतने ही ख़राब हैं तो वेदों में इनके बारे में लिखा ही क्यों है। वेदों में उनके बारे में इसलिए लिखा है की आपको वैदिक कर्म के फल के बारे पता तो होना ही चाहिए। आप किसी को दान करेंगे तो आपको यह तो पता होना ही चाहिए की इसका क्या फल मिलेगा। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है की आप उसी में लिप्त हो जाये। रही बात की जीना मुश्किल हो जायेगा तो यह समझ ले की सुख-भोग त्यागने से यह मतलब नहीं है की आप अपनी ज़रूरत को पूरा करना ही छोड़ दे। अच्छे घर में रहना, आने जाने की सुविधा के लिए गाड़ी होना या फिर खाने पिने के लिए अच्छे पकवान होना, अपने परिवार और अपनी सुरक्षा के लिए इतना धन इक्कट्ठा करना के आगे ज़रूरत पड़ने पर काम आ सके, इन सब में कोई बात गलत नहीं है। यह सब तो आपकी ज़रूरत है और उनको तो पूरा करना ही पड़ेगा। लेकिन ज़रूरत पूरी होने पर भी अँधा-धुंध पैसे कमाना, इश्वर प्राप्ति की कोशिश ही नहीं करना, बस वासना और सुख-भोग में लगे रहना ज़रूर गलत है। और अगर इस तरह सांसारिक सुख के पीछे भागते रहेंगे तो कभी वो अध्यात्मिक चेतना नहीं आ पायेगी जिसके बारे में श्री कृष्ण अर्जुन को बता रहे हैं। उसके लिए पूरा मन लगा कर कोशिश करनी पड़ेगी। ज़रूरत और भोग में फर्क करना सीखना पड़ेगा। आज के समय में किसी भी समय कोई पैसे की दिक्कत आ सकती है इसलिए खूब पैसा होना गलत नहीं है लेकिन उसकी भी एक सीमा होती है। अरबो रुपये होने पर भी पैसे के पीछे भागना, खाने पिने में सात्विक भोजन की कमी होना, पूरा समय बस इसी सोंच में लगे रहना की आज ऐसा क्या किया जाये की मज़ा आ जाये, इस फिल्म में चले या उस पार्टी में जाये। इश्वर प्राप्ति में थोडा समय भी न लगाना तो ज़रूर गलत है। पार्टी में जाना, फिल्म देखना कोई गलत नहीं है लेकिन इश्वर प्राप्ति भी तो ज़रूरी है, उसके लिए भी तो मन में थोड़ी जगह बना कर रखिये।

आगे श्री कृष्ण कहते है की इन सब सुख-भोग से ज्यादा सुख इश्वर प्राप्ति में आता है। यह सांसारिक सुख तो सिर्फ एक गागर के समान है, इश्वर प्राप्ति तो पूरी झील के समान है। लेकिन यह बात सिर्फ पढ़ लेने पर समझ में नहीं आएगी। इसके लिए ही श्री कृष्ण अध्यात्मिक चेतना की बात करते हैं और कहते हैं की जब तक भोग में लगे रहोगे तब तक इन बातो का महत्व नहीं पता लगेगा। हमेशा यही लगता रहेगा की यह सब बेकार की बाते है, ज़िन्दगी जीने के लिए होती है उसे पुरे उत्साह के साथ जिनी चाहिए, यह अध्यात्म तो बूढ़े लोगो के लिए है। जवान लोगो को शादी, परिवार, नौकरी, व्यापार पर ध्यान देना चाहिए। जब तक भोग वासना में लिप्त रहोगे यही सब बाते मन में आएँगी। क्या परिवार, व्यापार/नौकरी के रहते इश्वर प्राप्ति के लिए थोडा समय भी नहीं निकाल सकते। क्या थोडा सा दान कर दिया और हो गया। बस इतना ही हो पाता है हमसे इश्वर के लिए। दान पुण्य नहीं भी करोगे तो चलेगा पर मन को काबू में करना ज़रूरी है। कई लोग इसी आस में रहते है की मरने तक खूब कमाओ और जब ज़िन्दगी के कुछ आखरी साल बचे हो तो अपनी सम्पति से आधा दान करदो। लेकिन भक्तजनों इस से कुछ नहीं होने वाला है। दान या दुसरे इसी तरह के वैदिक कर्म से इश्वर प्राप्ति नहीं होती और हमारा लक्ष्य इश्वर प्राप्ति है।

रही बात की अध्यात्म वगैरह तो बूढ़े लोगो के लिए है। तो मैं आपको बता दू की भगवत गीता में आगे योग पर भी कुछ श्लोक आयेंगे जिसमे श्री कृष्ण योग के बारे में अर्जुन को बताते हैं। और अगर जवान रहते योग और मन को काबू में करना शुरू नहीं किया तो बूढ़े हो कर तो कुछ भी नहीं कर पाएंगे। अध्यात्म तो एक सपना बन कर ही रह जायेगा। प्राणायाम करना तो दूर की बात है, सांस लेने में ही तकलीफ होगी बुढ़ापे में तो फिर योग कहाँ से कर पाएंगे। अगर कोई जवान लड़का राम का नाम ले ले तो लोग उससे पूछते हैं की बूढ़े की तरह क्यों राम राम कर रहे हो. काम धाम करो यह क्या पागल की तरह राम राम कर रहे हो. लेकिन वे लोग यह भूल जाते हैं की बुढ़ापे में जब आपने बत्तीस दांत ही गिर जायेंगे और अपनी औलाद का नाम लेना ही मुश्किल हो जायेगा तो राम नाम कहाँ से लोगे. आज कई लोग योग की शक्ति को पहचान कर जवानी से ही योग करते हैं और अपने बच्चो को भी सिखाते हैं, तो क्या वे लोग पागल है, क्या वे लोग अपने नौकरी/व्यापार में तरक्की नहीं करते। क्या उन्होंने जीना छोड़ दिया। अगर आपने उन भोगी लोगो की बातो में आकर अपनी जवानी भोग और बेकार के कामो में लगा दी तो बुढ़ापे में बहुत पछतायेंगे। इस विषय पर विस्तार से चर्चा करेंगे जब श्री कृष्ण के योग पर कहे गए श्लोक आयेंगे।

कुछ खास बाते याद रखिये। अध्यात्म का कोई भी काम एक दम से शुरू न करे। एक दम से दान, मन को काबू में करना, या फिर कोई और अध्यात्मिक काम न करे। छोटी छोटी कोशिश करना शुरू करे और धीरे धीरे कुछ साल का समय ले इन सब कामो को करने के लिए। योग से शुरुवात करना सबसे सुरक्षित रहता है क्योंकि दान वगैरह में कई लोग भावना में बहकर अपना सब कुछ गवा बैठते हैं। या फिर जोश में आकर बिना होश के मन को काबू में करने के चक्कर में अपना नुकसान कर बैठते हैं। इसलिए छोटी छोटी कोशिश ही करे।

अगले अंक में कुछ और श्लोक की चर्चा करेंगे।

जय श्री कृष्ण !!!