भक्तजनों दुसरे अध्याय के बचे हुए श्लोक में से कुछ मुख्य श्लोको पर हम चर्चा करेंगे. इन श्लोको के साथ ही दुसरे अध्याय की समाप्ति हो जाएगी.
तानी सर्वानी संयम्य युक्त आसीत मत्परः
वशे ही यस्येंद्रयानी तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता !!!
MEANING : साधक को अपनी इन्द्रियों को अपने वश में रखकर मुझपर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए क्योंकि जिसकी इन्द्रिया वश में होती हैं वो साधक चेतन्य अवस्था में स्थापित होता हे.
ध्यायतो विषयां पुंसः संग्स्तेशुपजयते
संगात्संजायते कामः कमात्क्रोधोभिजयते !!!
MEANING : विषय वस्तु पर ध्यान केन्द्रित करने से उस वास्तु के प्रति आकर्षण पैदा होता हे, आकर्षण से मोह उत्पन होता हे और मोह से क्रोध.
क्रोधाद भवति सम्मोह सम्मोहत्स्म्रतिविभ्रमः
स्म्रतिभ्रन्षद बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रन्श्यती !!!
MEANING : क्रोध से माया(यहाँ पर माया से तात्पर्य हे illusion से), माया से स्मृति लुप्त होती हे और स्मृति के लुप्त हो जाने पर ज्ञान भी समाप्त होता हे और ज्ञान के न रहने पर हमारा अस्तित्व भी समाप्त हो जाता हे.
आपुर्यमानाम्चाल्प्रतिष्ठिथ
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत !
तादात कम यम प्रविशन्ति सर्वे
सा शान्तिमाप्नोति न कामकामी !!!
MEANING : उस साधक को असीम शांति प्राप्त होती हे जिस पर किसी भी तरह की सुख सुविधा का कोई असर नहीं होता हे. जैसे कोई समुद्र हमेशा तृप्त और भरा रहता हे और कितनी भी नदिया आकर उसमे मिल जाये उस पर कोई असर नहीं होता.
एषा भ्रह्म्ही स्थितिः पर्थ नैनं प्राप्य विमुहती
स्थित्वस्यमंत्कालेपी भ्रह्मनिर्वन्म्रचाछाती !!!
MEANING : हे अर्जुन, ज्ञान प्राप्त हो जाने पर वो साधक फिर कभी मोह-माया के वश में नहीं आता हे और अपनी मृत्यु के समय भी वो परमात्मा में लीन रहता हे. ऐसे साधक को निश्चय ही मोक्ष की प्राप्ति होती हे.
भक्तजनों इन श्लोको में श्री कृष्ण कह रहे हैं की साधक को अपनी इन्द्रियों पर काबू रखना चाहिए और उस परमत्मा पर ध्यान केन्द्रित करके ध्यान लगाना चाहिए. ऐसे में सवाल आता हे की ध्यान तो मन को वश में करने का साधन हे, ध्यान तो किसी भी वस्तु पर लगाया जा सकता हे, तो फिर श्री कृष्ण उन पर ध्यान केन्द्रित करने को क्यों कह रहे हैं. महत्व तो इन्द्रियों को काबू में करने का हे, न की ध्यान की वस्तु का. फिर क्यों राम का ही ध्यान लगाया जाये और रावण का नहीं. इसका जवाब दुसरे श्लोक में मिलता हे की हम जिस किसी वस्तु पर भी ध्यान लगाते हे, उस वस्तु के गुण हम में आने लग जाते हे. इसीलिए पुराने ज़माने में या तो इश्वर की मूर्ति पर ध्यान लगाया जाता था या फिर दीपक की लौ पर क्योंकि दीपक की लौ को सबसे पवित्र माना जाता हे. जब विषय वस्तु पर ध्यान लगाया जाता हे तो उस वस्तु के प्रति आकर्षण पैदा होने लगता हे और जब आकर्षण पैदा होता हे तो इच्छाए उत्पन होने लग जाती हे. और अगर इच्छाए पैदा होने लग गयी तो फिर ध्यान लगाने का कोई मतलब ही नहीं रह गया. इच्छाओ को काबू करने के लिए ही तो ध्यान का सहारा लिया जाता हे.
जब इश्वर पर ध्यान लगाया जाता हे तो इन्द्रिया तो काबू में होती ही हैं, साथ ही साथ इश्वर वाले गुण आने लग जाते हैं. मन में इश्वर के प्रति आकर्षण पैदा होने लग जाता हे और मोक्ष की इच्छा और तीव्र होने लग जाती हे. इन्द्रियों के काबू में आ जाने से विषय वस्तु में कोई रूचि नहीं रहती, बस ध्यान में बैठे रहने का मन होने लगता हे. मन में असीम शांति रहती हे, न कोई दुःख और न कोई सुख, सिर्फ शांति रहती हे. और मन की शांति ही सबसे बड़ा सुख होता हे.
श्री कृष्ण कह रहे हैं की जो साधक इन्द्रियों को काबू में रख पाता हे उसे असीम शांति प्राप्त होती हे और फिर चाहे उसे सारा संसार ही क्यों न मिल जाये, वह उसे ठोकर मार कर इश्वर प्राप्ति को ही महत्व देता हे. जैसे समुद्र हमेशा तृप्त ही रहता, हमेशा अपने में मगन, कितनी भी नदिया उसमे मिल जाये लेकिन उसे कभी नदी की इच्छा नहीं होती, समुद्र में मिल जाने पर उस नदी का अता पता ही नहीं रहता हे. उसी तरह साधक होता हे, संसार की सुविधा से कही ज्यादा सुख उसके भीतर ही होता हे और बाहरी सुख उसमे आकर ऐसे गायब होता हे की कोई अता-पता ही नहीं रहता.
ऐसा साधक अपनी मृत्यु के समय भी चिंता मुक्त रहता हे, उसे मरने का कोई डर या दुःख नहीं होता। ऐसे साधक को निश्चय ही मोक्ष मिलता हे क्योंकि वो संसार में रहकर भी संसार का नहीं रहता.भक्तजनों पुराणों, वेदों में ध्यान की बड़ी महिमा बताई गयी हे. अगर आप में से कोई अध्यात्म को गंभीरता से लेना चाहता हे तो कोई बड़ा कदम उठाने की बजाय ध्यान से शुरुआत करना ठीक रहेगा. रोज़ १५ मिनट का ध्यान कुछ सालो में आपको बहुत फ़ायदा करेगा. यह एक ऐसी चमत्कारी विध्या हे जो भारत की तरफ से विश्व को एक अमूल्य तोहफा हे. इस विध्या को अगर हिन्दू ग्रंथो में नहीं बताया गया होता तो शायद विश्व को कभी इस विध्या के बारे में पता न चलता. इसलिए बहुत ज्यादा नहीं तो ५ मिनट ही करे लेकिन करे ज़रूर. और हाँ किसी चमत्कार की उम्मीद न करे, उसके लिए तो एक अलग ही जीवन को जीना पड़ता हे. वोह हम जैसे सांसारिक लोगो के बस का नहीं हे.
अगले अंक से तीसरे अध्याय के श्लोको की चर्चा शुरू करेंगे जिसमे हमारे वैदिक कर्तव्यों के बारे में बताया गया हे, जिसे हमे किसी भी युग और किसी भी हालत में निभाना ही पड़ता हे.
जय श्री कृष्ण !!!
Blog is intended for discussion on the world's most powerful and divine scripture Bhagwat Geeta. I invite reader's opinion and their experiences about spirituality. The blog does not intend to translate the phrases of Geeta into spoken hindi and memorize it but rather tries to explore the hidden meaning that is meant to be observed and learnt from such a divine scripture.
Sunday, September 26, 2010
Wednesday, September 15, 2010
Geet chapter - 2.17
भक्तजनों जिस श्लोक पर हमने पहले चर्चा ख़त्म करी थी, उसके बाद के कुछ श्लोक लगभग वही बात करते है. इसलिए उन श्लोक पर चर्चा नहीं करते हुए, आगे के श्लोक पर चर्चा आगे बढ़ाते हे.
इस्थित्प्रग्यस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव
इस्थिताधिः किम प्रभासेट किमसिथ व्रजेत किम !!!
MEANING : हे कृष्ण जो व्यक्ति परमात्मा में लीन हो जाता है, जिस व्यक्ति को अध्यात्म चेतना प्राप्त होती है, वो व्यक्ति चलता कैसे है, कैसे बैठता है, कैसे बात करता है. ऐसे व्यक्ति को कैसे पहचानना चाहिए, उसकी क्या निशानी होती है.
प्रझाती यदा कामां सरवन पर्थ मनोगतान
आत्मन्येवात्मना तुष्टः इस्थित्प्रग्यास्त्दोच्याते !!!
MEANING : हे अर्जुन, जिस व्यक्ति की सारी इच्छाएं समाप्त हो गयी हो और जो आत्मज्ञान में इस्थित होकर संतुष्ट रहता है, वो व्यक्ति परमात्मा में लीन माना जायेगा.
यह सर्वत्रन्भिस्नेहस्तातात्प्रप्या शुभाशुबम
नाभिनान्दाती न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता !!!
MEANING : वो व्यक्ति जो दुःख से विचिलित न होता हो, जिसमे सुख की इच्छा न हो. जो मोह, क्रोध और डर से मुक्त हो, वो व्यक्ति परमात्मा में लीन होता है.
भक्तजनों पहले श्लोक में अर्जुन सवाल करते है और पूछते हैं की जो व्यक्ति परमात्मा में लीन होता है, जिसकी सारी इच्छाए ख़त्म हो गयी हो, उस व्यक्ति को कैसे पहचान सकते हैं. वो व्यक्ति चलता कैसे है, बात कैसे करता है. भक्तजनों भगवत गीता का यही महत्व है की उसमे अर्जुन ने वही सारे सवाल किये हैं जो किसी के भी मन में आ सकते हैं. जो आपके या मेरे मन में आते हे. हम कई बार यह सोंचते हैं की सही और इमानदार संत को कैसे पहचान सकते हे, क्या फर्क होता हे उनमे और हम में. ऐसा कहते हे की अर्जुन ने यह सारे सवाल जान-भुज कर करे थे ताकि आगे चलकर लोगो को भगवत गीता आसानी से समझमे आ सके.
सवाल करना कोई गलत बात नहीं हे. किसी बात को जब तक समझोगे नहीं तो करोगे कैसे. और समझने के लिए मन में उठने वाले सारे सवालो के जवाब मिलने चाहिए. मुझे एक बार एक इ-मेल मिला था जिसमे किसी ने मजाक किया था की अगर कृष्ण के मामा कंस को अगर अपनी मौत से बचना ही था तो उन्होंने अपनी बहिन और जीजाजी को एक ही जगह क्यों बंद किया, अलग-अलग रखता तो न बच्चे होते और न वो मरता. भक्तजनों यह मजाक ज़रूर था लेकिन सवाल एकदम सही.
मैंने कहा की महाभारत में सिर्फ एक यह बात ही आश्चर्य की नहीं है, गांधारी के १०० बच्चे थे, एक बच्चे को होने में ९ महीने लगते है, और मान लिया जाये के बच्चे एक के बाद एक हुए हो तो भी ७५ साल लग जायेंगे १०० बच्चे होने में. जबकि दुर्योधन तो जवानी में ही मारे गए थे और उसके पहले ही वे सब १०० भाई थे. खैर सवाल बहुत से हे और जवाब भी, लेकिन इसकी चर्चा फिर कभी.
भक्तजनों अर्जुन ने जो सवाल किया था उसके जवाब में श्री कृष्ण बताते हे की जिस व्यक्ति की सारी इच्छाए समाप्त हो गयी हो, वो व्यक्ति ही परमात्मा में लीन माना जायेगा. उसके चलने या बात करने के तरीके में कोई फर्क नहीं होगा. उसके चलने या बात करने के तरीके से आपको कुछ पता नहीं चलने वाला हे. इसलिए आपको सिर्फ आपकी इस्तिथि का पता होगा, दुसरे लोगो की नहीं. अगर आपकी इच्छाए ख़त्म हो गयी हो तो आपको पता चल जायेगा, लेकिन दुसरे व्यक्ति की नहीं.
इसे समझने के लिए में आपको एक कथा सुनाता हु.
एक बार एक संत किसी नगर में गए हुए थे. उनके बारे में सुनकर उस नगर के राजा ने उन्हें अपने महल में रहने का आग्रह किया. संत मान गए. उन संत के लिए राजा ने सारी सुख सुविधा करवा के रखी. जो वो राजा खाता, वाही संत को भी दिया जाता. उनके सोने के लिए भी आरामदायक पलंग दिया गया था. शुरू में तो राजा खुश था लेकिन कुछ दिनों के बाद उसे लगने लगा की ये कैसे संत हे, अगर इन्हें सारी सुविधा मिल रही हे तो इनमे और मुझमे क्या फर्क हे. यह तो मेरी ही तरह आम इन्सान हे. राजा किसी तरह हिम्मत करके उन संत को महल छोड़ कर जाने को कहता हे. संत तुरंत मान जाते हे. जब वे जाते हे तो राजा उनसे पूछता हे की हे संत क्या आपको ज़रा भी दुःख नहीं हो रहा हे इन सारी सुख सुविधा को छोड़ने का. संत कहते हे, राजन में तो सिर्फ महल में रहता था, मुझे इस महल से कोई मोह नहीं हे. ज़रूरत जितना खाता था और ज़रूरत जितना सोता. इसके अलावा इस महल का मेरे लिए कोई प्रयोजन नहीं हे. यह तो में जंगल में रह कर भी कर सकता हु. मेरी ज़रूरत तो कही भी पूरी हो सकती हे. लेकिन तुम्हे इस महल का मोह हे इसलिए तुमको दुःख होता हे इसे छोड़ने में. बस यही फर्क हे हम दोनों में. हम दोनों एक ही तरह खाते, सोते थे लेकिन मुझे मोह नहीं था और तुम्हे इस महल से लगाव हे.
भक्तजनों में शुरू से यही कहता आया हु की सुख सुविधा का त्याग करना किसी समस्या का हल नहीं, मन से उसके मोह को निकालना ज़रूरी हे. फिर कीचड़ में भी कमल की तरह रह सकोगे.
अगले अंक में कुछ और श्लोक की चर्चा करेंगे.
जय श्री कृष्ण !!!
इस्थित्प्रग्यस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव
इस्थिताधिः किम प्रभासेट किमसिथ व्रजेत किम !!!
MEANING : हे कृष्ण जो व्यक्ति परमात्मा में लीन हो जाता है, जिस व्यक्ति को अध्यात्म चेतना प्राप्त होती है, वो व्यक्ति चलता कैसे है, कैसे बैठता है, कैसे बात करता है. ऐसे व्यक्ति को कैसे पहचानना चाहिए, उसकी क्या निशानी होती है.
प्रझाती यदा कामां सरवन पर्थ मनोगतान
आत्मन्येवात्मना तुष्टः इस्थित्प्रग्यास्त्दोच्याते !!!
MEANING : हे अर्जुन, जिस व्यक्ति की सारी इच्छाएं समाप्त हो गयी हो और जो आत्मज्ञान में इस्थित होकर संतुष्ट रहता है, वो व्यक्ति परमात्मा में लीन माना जायेगा.
यह सर्वत्रन्भिस्नेहस्तातात्प्रप्या शुभाशुबम
नाभिनान्दाती न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता !!!
MEANING : वो व्यक्ति जो दुःख से विचिलित न होता हो, जिसमे सुख की इच्छा न हो. जो मोह, क्रोध और डर से मुक्त हो, वो व्यक्ति परमात्मा में लीन होता है.
भक्तजनों पहले श्लोक में अर्जुन सवाल करते है और पूछते हैं की जो व्यक्ति परमात्मा में लीन होता है, जिसकी सारी इच्छाए ख़त्म हो गयी हो, उस व्यक्ति को कैसे पहचान सकते हैं. वो व्यक्ति चलता कैसे है, बात कैसे करता है. भक्तजनों भगवत गीता का यही महत्व है की उसमे अर्जुन ने वही सारे सवाल किये हैं जो किसी के भी मन में आ सकते हैं. जो आपके या मेरे मन में आते हे. हम कई बार यह सोंचते हैं की सही और इमानदार संत को कैसे पहचान सकते हे, क्या फर्क होता हे उनमे और हम में. ऐसा कहते हे की अर्जुन ने यह सारे सवाल जान-भुज कर करे थे ताकि आगे चलकर लोगो को भगवत गीता आसानी से समझमे आ सके.
सवाल करना कोई गलत बात नहीं हे. किसी बात को जब तक समझोगे नहीं तो करोगे कैसे. और समझने के लिए मन में उठने वाले सारे सवालो के जवाब मिलने चाहिए. मुझे एक बार एक इ-मेल मिला था जिसमे किसी ने मजाक किया था की अगर कृष्ण के मामा कंस को अगर अपनी मौत से बचना ही था तो उन्होंने अपनी बहिन और जीजाजी को एक ही जगह क्यों बंद किया, अलग-अलग रखता तो न बच्चे होते और न वो मरता. भक्तजनों यह मजाक ज़रूर था लेकिन सवाल एकदम सही.
मैंने कहा की महाभारत में सिर्फ एक यह बात ही आश्चर्य की नहीं है, गांधारी के १०० बच्चे थे, एक बच्चे को होने में ९ महीने लगते है, और मान लिया जाये के बच्चे एक के बाद एक हुए हो तो भी ७५ साल लग जायेंगे १०० बच्चे होने में. जबकि दुर्योधन तो जवानी में ही मारे गए थे और उसके पहले ही वे सब १०० भाई थे. खैर सवाल बहुत से हे और जवाब भी, लेकिन इसकी चर्चा फिर कभी.
भक्तजनों अर्जुन ने जो सवाल किया था उसके जवाब में श्री कृष्ण बताते हे की जिस व्यक्ति की सारी इच्छाए समाप्त हो गयी हो, वो व्यक्ति ही परमात्मा में लीन माना जायेगा. उसके चलने या बात करने के तरीके में कोई फर्क नहीं होगा. उसके चलने या बात करने के तरीके से आपको कुछ पता नहीं चलने वाला हे. इसलिए आपको सिर्फ आपकी इस्तिथि का पता होगा, दुसरे लोगो की नहीं. अगर आपकी इच्छाए ख़त्म हो गयी हो तो आपको पता चल जायेगा, लेकिन दुसरे व्यक्ति की नहीं.
इसे समझने के लिए में आपको एक कथा सुनाता हु.
एक बार एक संत किसी नगर में गए हुए थे. उनके बारे में सुनकर उस नगर के राजा ने उन्हें अपने महल में रहने का आग्रह किया. संत मान गए. उन संत के लिए राजा ने सारी सुख सुविधा करवा के रखी. जो वो राजा खाता, वाही संत को भी दिया जाता. उनके सोने के लिए भी आरामदायक पलंग दिया गया था. शुरू में तो राजा खुश था लेकिन कुछ दिनों के बाद उसे लगने लगा की ये कैसे संत हे, अगर इन्हें सारी सुविधा मिल रही हे तो इनमे और मुझमे क्या फर्क हे. यह तो मेरी ही तरह आम इन्सान हे. राजा किसी तरह हिम्मत करके उन संत को महल छोड़ कर जाने को कहता हे. संत तुरंत मान जाते हे. जब वे जाते हे तो राजा उनसे पूछता हे की हे संत क्या आपको ज़रा भी दुःख नहीं हो रहा हे इन सारी सुख सुविधा को छोड़ने का. संत कहते हे, राजन में तो सिर्फ महल में रहता था, मुझे इस महल से कोई मोह नहीं हे. ज़रूरत जितना खाता था और ज़रूरत जितना सोता. इसके अलावा इस महल का मेरे लिए कोई प्रयोजन नहीं हे. यह तो में जंगल में रह कर भी कर सकता हु. मेरी ज़रूरत तो कही भी पूरी हो सकती हे. लेकिन तुम्हे इस महल का मोह हे इसलिए तुमको दुःख होता हे इसे छोड़ने में. बस यही फर्क हे हम दोनों में. हम दोनों एक ही तरह खाते, सोते थे लेकिन मुझे मोह नहीं था और तुम्हे इस महल से लगाव हे.
भक्तजनों में शुरू से यही कहता आया हु की सुख सुविधा का त्याग करना किसी समस्या का हल नहीं, मन से उसके मोह को निकालना ज़रूरी हे. फिर कीचड़ में भी कमल की तरह रह सकोगे.
अगले अंक में कुछ और श्लोक की चर्चा करेंगे.
जय श्री कृष्ण !!!
Saturday, September 4, 2010
Geeta chapter - 2.16
भक्तजनों कई सरे सवाल आते होंगे मन में की क्या सन्यास लेना सही होता है, क्या सन्यास के बिना मुक्ति संभव नहीं है. सन्यासी जीवन में ऐसी क्या खास बात है की उसे इतना महत्वपूर्ण माना जाता है. क्यों बड़े बड़े ज्ञानी लोग पहले सन्यासी बनते हैं और उसके बाद जाकर उन्हें ज्ञान प्राप्त हो पाता है. भक्तजनों हमारे समझने में थोड़ी सी गलती है. सन्यास कोई अलग से लेने की चीज नहीं है, वो तो एक पड़ाव है मुक्ति से पहले का. जब कोई व्यक्ति आध्यात्म की राह पर चलता है, योग करता है, ध्यान लगाता है, तो उसमे धीरे धीरे मन को एकाग्र करने की काबिलियत आ जाती है और जब मन एकाग्र हो जाता है तो ध्यान के आलावा किसी और चीज में मन ही नहीं लगता है. खाना पीना सिर्फ ज़रूरत जितना ही खाते हे. जब ऐसी इस्थिथि आ जाती हे तो हम परिवार और समाज के रीती रिवाज़ से परेशान होने लगते हैं, हमे लगने लग जाता है की इस सब से हमारा समय बर्बाद हो रहा है, कभी किसी के यहाँ बच्चा पैदा हो गया तो वहां जाना पड़ता है, कभी किसी की शादी में जाना है, तो कभी किसी का कुछ तो कभी किसी और का कुछ न कुछ चल रहा होता है. इन सब से मुक्त होते ही परिवार के लिए समय निकालना पड़ता है. हमे लगता है की इन सब कामो की वजह से हम ध्यान नहीं लगा पा रहे हैं. रोज़ कुछ न कुछ काम निकल आता है. इसी वजह से कुछ लोग घर-बार छोड़ कर जंगल में चले जाते थे. जिन्हें ऐसी कोई परेशानी नहीं थी वे घर पर ही यह सब करते थे. परेशान होने की वजह भी सही थी क्योंकि ध्यान कोई एक या दो घंटे नहीं बल्कि १०-१२ घंटे लगाना पड़ता है, तब जाकर मन काबू में रह पता है और मुक्ति का रास्ता खुलता है. समाज और परिवार के रहते इतने घंटे ध्यान लगा पाना असंभव हे, इसीलिए वे जंगल में चले जाते थे.
मुक्ति का मतलब ही यह है की व्यक्ति को इश्वर के अलावा किसी और की इच्छा ही नहीं हे. न शरीर की, न परिवार की, न धन-दौलत की, किसी की भी नहीं. सिर्फ इश्वर और सिर्फ इश्वर. और सन्यास इसकी शुरुवात होता है. इसलिए सन्यास कोई अलग से लेने की चीज न होकर, प्राक्रतिक तौर पर आपका स्वाभाव बन जाता है. जैसे हमे नींद आने से पहले हमारा शरीर बोझिल होने लगता है, हम अलग से प्रयास नहीं करते हैं शरीर को बोझिल करने का. जब नींद आती है तो अपने आप ही शरीर ढीला पड़ने लगता है. इसी तरह से जब मुक्ति का समय आने लगता है तो अपने आप सन्यासी वाले गुण आने लग जाते हैं, फिर किसी के रोकने पर हम रुकते नहीं हैं. इसीलिए हमे लगता है की उस समय लोग जबरन ही सन्यास लेते थे जबकि हकीकत यह है की सन्यास लेते नहीं थे बल्कि सन्यासी जीवन को प्राप्त करते थे. रही बात की ऐसा करना सही है या नहीं तो यह समझ लीजिये की यह कोई साल दो साल की बात नहीं है, कई साल लग जाते है मन से मोह माया को निकालने में, जब तक हमारी किस्मत में मुक्ति लिखी नहीं हो तब तक हम इस तरफ ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाते हैं. बहुत पहले ही हमे आभास होने लग जाता है की मुक्ति मिल जाएगी, कई सारी सिद्धिया प्राप्त हो जाती है, और जब ऐसा हो तो ज़ाहिर सी बात है की दुनिया हमारी मुट्ठी में आ जाएगी, फिर ऐसी दुनिया का हमे क्या मोह रहेगा. हम तो इस से भी आगे बढ़ने की सोचेंगे. इसीलिए लोग अध्यात्म के रास्ते से अलग नहीं हट ते थे. उन्हें पता चल जाता था की इस सब से बड़ा इश्वर है और पाना हे तो उसे पा लो. यही अध्यात्म है।
जय श्री कृष्ण !!!
मुक्ति का मतलब ही यह है की व्यक्ति को इश्वर के अलावा किसी और की इच्छा ही नहीं हे. न शरीर की, न परिवार की, न धन-दौलत की, किसी की भी नहीं. सिर्फ इश्वर और सिर्फ इश्वर. और सन्यास इसकी शुरुवात होता है. इसलिए सन्यास कोई अलग से लेने की चीज न होकर, प्राक्रतिक तौर पर आपका स्वाभाव बन जाता है. जैसे हमे नींद आने से पहले हमारा शरीर बोझिल होने लगता है, हम अलग से प्रयास नहीं करते हैं शरीर को बोझिल करने का. जब नींद आती है तो अपने आप ही शरीर ढीला पड़ने लगता है. इसी तरह से जब मुक्ति का समय आने लगता है तो अपने आप सन्यासी वाले गुण आने लग जाते हैं, फिर किसी के रोकने पर हम रुकते नहीं हैं. इसीलिए हमे लगता है की उस समय लोग जबरन ही सन्यास लेते थे जबकि हकीकत यह है की सन्यास लेते नहीं थे बल्कि सन्यासी जीवन को प्राप्त करते थे. रही बात की ऐसा करना सही है या नहीं तो यह समझ लीजिये की यह कोई साल दो साल की बात नहीं है, कई साल लग जाते है मन से मोह माया को निकालने में, जब तक हमारी किस्मत में मुक्ति लिखी नहीं हो तब तक हम इस तरफ ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाते हैं. बहुत पहले ही हमे आभास होने लग जाता है की मुक्ति मिल जाएगी, कई सारी सिद्धिया प्राप्त हो जाती है, और जब ऐसा हो तो ज़ाहिर सी बात है की दुनिया हमारी मुट्ठी में आ जाएगी, फिर ऐसी दुनिया का हमे क्या मोह रहेगा. हम तो इस से भी आगे बढ़ने की सोचेंगे. इसीलिए लोग अध्यात्म के रास्ते से अलग नहीं हट ते थे. उन्हें पता चल जाता था की इस सब से बड़ा इश्वर है और पाना हे तो उसे पा लो. यही अध्यात्म है।
जय श्री कृष्ण !!!
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