भक्तजनों कई सरे सवाल आते होंगे मन में की क्या सन्यास लेना सही होता है, क्या सन्यास के बिना मुक्ति संभव नहीं है. सन्यासी जीवन में ऐसी क्या खास बात है की उसे इतना महत्वपूर्ण माना जाता है. क्यों बड़े बड़े ज्ञानी लोग पहले सन्यासी बनते हैं और उसके बाद जाकर उन्हें ज्ञान प्राप्त हो पाता है. भक्तजनों हमारे समझने में थोड़ी सी गलती है. सन्यास कोई अलग से लेने की चीज नहीं है, वो तो एक पड़ाव है मुक्ति से पहले का. जब कोई व्यक्ति आध्यात्म की राह पर चलता है, योग करता है, ध्यान लगाता है, तो उसमे धीरे धीरे मन को एकाग्र करने की काबिलियत आ जाती है और जब मन एकाग्र हो जाता है तो ध्यान के आलावा किसी और चीज में मन ही नहीं लगता है. खाना पीना सिर्फ ज़रूरत जितना ही खाते हे. जब ऐसी इस्थिथि आ जाती हे तो हम परिवार और समाज के रीती रिवाज़ से परेशान होने लगते हैं, हमे लगने लग जाता है की इस सब से हमारा समय बर्बाद हो रहा है, कभी किसी के यहाँ बच्चा पैदा हो गया तो वहां जाना पड़ता है, कभी किसी की शादी में जाना है, तो कभी किसी का कुछ तो कभी किसी और का कुछ न कुछ चल रहा होता है. इन सब से मुक्त होते ही परिवार के लिए समय निकालना पड़ता है. हमे लगता है की इन सब कामो की वजह से हम ध्यान नहीं लगा पा रहे हैं. रोज़ कुछ न कुछ काम निकल आता है. इसी वजह से कुछ लोग घर-बार छोड़ कर जंगल में चले जाते थे. जिन्हें ऐसी कोई परेशानी नहीं थी वे घर पर ही यह सब करते थे. परेशान होने की वजह भी सही थी क्योंकि ध्यान कोई एक या दो घंटे नहीं बल्कि १०-१२ घंटे लगाना पड़ता है, तब जाकर मन काबू में रह पता है और मुक्ति का रास्ता खुलता है. समाज और परिवार के रहते इतने घंटे ध्यान लगा पाना असंभव हे, इसीलिए वे जंगल में चले जाते थे.
मुक्ति का मतलब ही यह है की व्यक्ति को इश्वर के अलावा किसी और की इच्छा ही नहीं हे. न शरीर की, न परिवार की, न धन-दौलत की, किसी की भी नहीं. सिर्फ इश्वर और सिर्फ इश्वर. और सन्यास इसकी शुरुवात होता है. इसलिए सन्यास कोई अलग से लेने की चीज न होकर, प्राक्रतिक तौर पर आपका स्वाभाव बन जाता है. जैसे हमे नींद आने से पहले हमारा शरीर बोझिल होने लगता है, हम अलग से प्रयास नहीं करते हैं शरीर को बोझिल करने का. जब नींद आती है तो अपने आप ही शरीर ढीला पड़ने लगता है. इसी तरह से जब मुक्ति का समय आने लगता है तो अपने आप सन्यासी वाले गुण आने लग जाते हैं, फिर किसी के रोकने पर हम रुकते नहीं हैं. इसीलिए हमे लगता है की उस समय लोग जबरन ही सन्यास लेते थे जबकि हकीकत यह है की सन्यास लेते नहीं थे बल्कि सन्यासी जीवन को प्राप्त करते थे. रही बात की ऐसा करना सही है या नहीं तो यह समझ लीजिये की यह कोई साल दो साल की बात नहीं है, कई साल लग जाते है मन से मोह माया को निकालने में, जब तक हमारी किस्मत में मुक्ति लिखी नहीं हो तब तक हम इस तरफ ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाते हैं. बहुत पहले ही हमे आभास होने लग जाता है की मुक्ति मिल जाएगी, कई सारी सिद्धिया प्राप्त हो जाती है, और जब ऐसा हो तो ज़ाहिर सी बात है की दुनिया हमारी मुट्ठी में आ जाएगी, फिर ऐसी दुनिया का हमे क्या मोह रहेगा. हम तो इस से भी आगे बढ़ने की सोचेंगे. इसीलिए लोग अध्यात्म के रास्ते से अलग नहीं हट ते थे. उन्हें पता चल जाता था की इस सब से बड़ा इश्वर है और पाना हे तो उसे पा लो. यही अध्यात्म है।
जय श्री कृष्ण !!!
nice work ...... atleast i found a place where i can get meaning of shloks ..... thanks ...
ReplyDelete-ishant