भक्तजनों जिस श्लोक पर हमने पहले चर्चा ख़त्म करी थी, उसके बाद के कुछ श्लोक लगभग वही बात करते है. इसलिए उन श्लोक पर चर्चा नहीं करते हुए, आगे के श्लोक पर चर्चा आगे बढ़ाते हे.
इस्थित्प्रग्यस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव
इस्थिताधिः किम प्रभासेट किमसिथ व्रजेत किम !!!
MEANING : हे कृष्ण जो व्यक्ति परमात्मा में लीन हो जाता है, जिस व्यक्ति को अध्यात्म चेतना प्राप्त होती है, वो व्यक्ति चलता कैसे है, कैसे बैठता है, कैसे बात करता है. ऐसे व्यक्ति को कैसे पहचानना चाहिए, उसकी क्या निशानी होती है.
प्रझाती यदा कामां सरवन पर्थ मनोगतान
आत्मन्येवात्मना तुष्टः इस्थित्प्रग्यास्त्दोच्याते !!!
MEANING : हे अर्जुन, जिस व्यक्ति की सारी इच्छाएं समाप्त हो गयी हो और जो आत्मज्ञान में इस्थित होकर संतुष्ट रहता है, वो व्यक्ति परमात्मा में लीन माना जायेगा.
यह सर्वत्रन्भिस्नेहस्तातात्प्रप्या शुभाशुबम
नाभिनान्दाती न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता !!!
MEANING : वो व्यक्ति जो दुःख से विचिलित न होता हो, जिसमे सुख की इच्छा न हो. जो मोह, क्रोध और डर से मुक्त हो, वो व्यक्ति परमात्मा में लीन होता है.
भक्तजनों पहले श्लोक में अर्जुन सवाल करते है और पूछते हैं की जो व्यक्ति परमात्मा में लीन होता है, जिसकी सारी इच्छाए ख़त्म हो गयी हो, उस व्यक्ति को कैसे पहचान सकते हैं. वो व्यक्ति चलता कैसे है, बात कैसे करता है. भक्तजनों भगवत गीता का यही महत्व है की उसमे अर्जुन ने वही सारे सवाल किये हैं जो किसी के भी मन में आ सकते हैं. जो आपके या मेरे मन में आते हे. हम कई बार यह सोंचते हैं की सही और इमानदार संत को कैसे पहचान सकते हे, क्या फर्क होता हे उनमे और हम में. ऐसा कहते हे की अर्जुन ने यह सारे सवाल जान-भुज कर करे थे ताकि आगे चलकर लोगो को भगवत गीता आसानी से समझमे आ सके.
सवाल करना कोई गलत बात नहीं हे. किसी बात को जब तक समझोगे नहीं तो करोगे कैसे. और समझने के लिए मन में उठने वाले सारे सवालो के जवाब मिलने चाहिए. मुझे एक बार एक इ-मेल मिला था जिसमे किसी ने मजाक किया था की अगर कृष्ण के मामा कंस को अगर अपनी मौत से बचना ही था तो उन्होंने अपनी बहिन और जीजाजी को एक ही जगह क्यों बंद किया, अलग-अलग रखता तो न बच्चे होते और न वो मरता. भक्तजनों यह मजाक ज़रूर था लेकिन सवाल एकदम सही.
मैंने कहा की महाभारत में सिर्फ एक यह बात ही आश्चर्य की नहीं है, गांधारी के १०० बच्चे थे, एक बच्चे को होने में ९ महीने लगते है, और मान लिया जाये के बच्चे एक के बाद एक हुए हो तो भी ७५ साल लग जायेंगे १०० बच्चे होने में. जबकि दुर्योधन तो जवानी में ही मारे गए थे और उसके पहले ही वे सब १०० भाई थे. खैर सवाल बहुत से हे और जवाब भी, लेकिन इसकी चर्चा फिर कभी.
भक्तजनों अर्जुन ने जो सवाल किया था उसके जवाब में श्री कृष्ण बताते हे की जिस व्यक्ति की सारी इच्छाए समाप्त हो गयी हो, वो व्यक्ति ही परमात्मा में लीन माना जायेगा. उसके चलने या बात करने के तरीके में कोई फर्क नहीं होगा. उसके चलने या बात करने के तरीके से आपको कुछ पता नहीं चलने वाला हे. इसलिए आपको सिर्फ आपकी इस्तिथि का पता होगा, दुसरे लोगो की नहीं. अगर आपकी इच्छाए ख़त्म हो गयी हो तो आपको पता चल जायेगा, लेकिन दुसरे व्यक्ति की नहीं.
इसे समझने के लिए में आपको एक कथा सुनाता हु.
एक बार एक संत किसी नगर में गए हुए थे. उनके बारे में सुनकर उस नगर के राजा ने उन्हें अपने महल में रहने का आग्रह किया. संत मान गए. उन संत के लिए राजा ने सारी सुख सुविधा करवा के रखी. जो वो राजा खाता, वाही संत को भी दिया जाता. उनके सोने के लिए भी आरामदायक पलंग दिया गया था. शुरू में तो राजा खुश था लेकिन कुछ दिनों के बाद उसे लगने लगा की ये कैसे संत हे, अगर इन्हें सारी सुविधा मिल रही हे तो इनमे और मुझमे क्या फर्क हे. यह तो मेरी ही तरह आम इन्सान हे. राजा किसी तरह हिम्मत करके उन संत को महल छोड़ कर जाने को कहता हे. संत तुरंत मान जाते हे. जब वे जाते हे तो राजा उनसे पूछता हे की हे संत क्या आपको ज़रा भी दुःख नहीं हो रहा हे इन सारी सुख सुविधा को छोड़ने का. संत कहते हे, राजन में तो सिर्फ महल में रहता था, मुझे इस महल से कोई मोह नहीं हे. ज़रूरत जितना खाता था और ज़रूरत जितना सोता. इसके अलावा इस महल का मेरे लिए कोई प्रयोजन नहीं हे. यह तो में जंगल में रह कर भी कर सकता हु. मेरी ज़रूरत तो कही भी पूरी हो सकती हे. लेकिन तुम्हे इस महल का मोह हे इसलिए तुमको दुःख होता हे इसे छोड़ने में. बस यही फर्क हे हम दोनों में. हम दोनों एक ही तरह खाते, सोते थे लेकिन मुझे मोह नहीं था और तुम्हे इस महल से लगाव हे.
भक्तजनों में शुरू से यही कहता आया हु की सुख सुविधा का त्याग करना किसी समस्या का हल नहीं, मन से उसके मोह को निकालना ज़रूरी हे. फिर कीचड़ में भी कमल की तरह रह सकोगे.
अगले अंक में कुछ और श्लोक की चर्चा करेंगे.
जय श्री कृष्ण !!!
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