भक्तजनों कुछ दिनों से मैंने कुछ नहीं लिखा है. थोडा बीमार हो गया था. मुझसे वैभाव्जी ने अच्छा सवाल पुचा था. श्री कृष्ण कर्म की बात करते हैं, कर्त्तव्य की बात करते हैं, लेकिन गौतम बुद्ध ने अपना राज-पात, परिवार छोड़ दिया था और जंगले में चले गए थे. दोनों को महँ मन जाता है. लेकिन दोनों ने एक दुसरे से बिलकुल विपरीत काम किये. तो फिर दोनों में से सही कौन. सही दोनों ही हैं. फ़र्ज़ निभाने का मतलब किसी ख़ास काम को करना नहीं होता है, अगर ऐसा होता तो सरे लोग अपने परिवार को एक ही तरीके से पलते. मकसद होना चाहिए की परिवार खुश रहे, उनका भरण पोषण होता रहे. तकलीफ न हो. इस तरह से कोई भी फ़र्ज़ उन्होंने करने से मन नहीं किया. राज-पट उनके पिता का था इसलिए प्रजा के प्रति उनकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं थी, वे खुद भी अगर रजा होते और सन्यास लेने के लिए राज-पट किसी और को सौप देते तो भी चलता. मकसद तो प्रजा की देख भाल के साथ ही ख़त्म हो जाता है. जिस समय
उन्होंने ने सन्यास लिया था उस समय वे युवराज थे, परिवार का भरण पोषण करना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी, ऊपर से परिवार कोई ऐतराज़ भी नहीं था.
वो ज़माना ही ऐसा था जब लोग सन्यास को जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काम मानते थे. गौतम बुद्ध ने किसी को बे-सहारा छोड़ कर सन्यास नहीं लिया था. ऐसा कोई फ़र्ज़ नहीं था जिसे वे अधुरा छोड़ कर सन्यास ले रहे थे. और इस पर भी इश्वर प्राप्ति ही हमारा सबसे बड़ा फ़र्ज़ है.
इसके बिलकुल विपरीत अर्जुन कर रहे थे. सेना लड़ने को तैयार है, सब जानते थे की अर्जुन के बिना युद्ध जीतना नामुमकिन है, प्रजा को दुर्योधन जैसे जुल्मी रजा के हटो में छोड़ कर सन्यासी बन जाना तो बहुत गलत है. उनकी प्रजा को सँभालने वाला कौन था, उनके बड़े भाई ज़रूर थे, लेकिन उसके लिए युद्ध
जीतना भी तो ज़रूरी था. इस पर भी सन्यास का कारन मोक्ष न होकर वे सिर्फ अपने सम्बंधियो को मरने से लगने वाले पाप से बचना चाहते थे. ऐसे तो मुक्ति संभव नहीं है भाई. द्रौपती तो बिलकुल उनके सन्यास लेने के विपरीत थी. और तो और अगर सन्यास लेना ही था तो शादी करी ही क्यों. करी भी तो उस से जो आपके सन्यास से खुश न हो, तो फिर उसको दुखी कर के तो जा नहीं सकते.
कहने का मतलब यही है की या तो ज़िम्मेदारी में बंधे ही नहीं, और अगर अपने खुद ज़िम्मेदारी उठाई है और आपके भरोसे कोई आपके साथ आ गया है तो फिर उसका साथ दे. अगर किसी को आपकी ज़रूरत है तो आप मन नहीं कर सकते. यह बाते चर्चा करने पर ही समझमे आएँगी. सिर्फ में ही में बोलता रहूँगा तो
समझमे नहीं आएँगी.
अगर संक्षिप्त में कहे तो सन्यास लेना भी ज़रूरी है, कभी भारत में यह एक आम बात थी. लोग कशी जाया करते थे. लेकिन फ़र्ज़ और सन्यास में तालमेल बिठाना आता था उनको. जैसे हम जब चलते हैं तो कई जीव-जंतु हमारे पैरो के निचे आकर मर जाते है. उसका हम कुछ नहीं कर सकते, लेकिन जानते भुजते तो नहीं करना चाहिए. उसी तरह सन्यास तो लेना ही है लेकिन यह जानते हुए की ऐसा करने पर कोई अनाथ हो जायेगा, किसी का कोई और नुकसान हो जायेगा, और हम फिर भी सन्यास ले तो सही नहीं है न. एक तालमेल बिठा कर करे तो सब सुखी हो जायेंगे. थोडा दुसरो को भी समझना चाहिए की उनके भोग में किसी का सन्यास तो नहीं बिगड़ना चाहिए, थोडा आपको भी समझना चाहिए की अपनी कुछ जवाबदारी है किसी के प्रति, उनको पूरा करते ही सन्यास ले लेंगे.
जय श्री कृष्ण !!!
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