Saturday, August 7, 2010

Geeta chapter - 2.12

भक्तजनों पिछले अंक में जिस श्लोक की चर्चा की थी उसी विषय पर श्री कृष्ण द्वारा आगे भी कुछ और श्लोक हैं। उसी पर इस अंक में हम चर्चा करेंगे।

भोगैश्वर्य प्रसक्तानाम तयापहर्ताचेत्सम
व्यवसयाक्त्मिका बुद्धिः समाधौ विधीयते !!!
MEANING : इन्द्रियों के सुख-भोग और सांसारिक सुख के बारे में सोंचते सोंचते उनका संकल्प टूट जाता है। उन्हें उस अलोकिक चेतना, ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती है जिससे वे अपने मन को इश्वर प्राप्ति में लगा सके।

त्रेगुन्यविशाया वेदा निस्त्रेय्गुन्यो भवार्जुन
निर्द्वन्द्वो नित्यासत्वस्थो निर्योगेक्षम आत्मवान !!!
MEANING : हे अर्जुन वेद विषय-वस्तु की तीन अवस्था के बारे में बात करते हैं। तुम्हे आत्म-ज्ञान प्राप्त कर इन तीन अवस्थाओ से परे जो अध्यात्मिक चेतना है उस में लीन हो कर अपने आप को राग-द्वेष, प्राप्ति और संग्रहण से मुक्त रखना है।

यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके
तावान सर्वेषु वेदेषु ब्रह्मंस्य विजानतः !!!
MEANING : जो कुछ एक गागर/कुआ दे सकता है, वही सब कुछ उससे बेहतर एक झील दे सकती है। इसी तरह एक आत्म-ज्ञानी को वैदिक कर्मकांड से मिलने वाले सुख-भोग से कही ज्यादा सुख मिलता।

भक्तजनों श्री कृष्ण कह रहे हैं की जो लोग सांसारिक सुख-भोग के बारे में ही सोंचते रहते हैं, वे कभी मोक्ष प्राप्ति के संकल्प पर कायम नहीं रह पाते। उनका वोह संकल्प सुख-भोग की भेंट चढ़ जाता है और टूट जाता है। वासना और भोग में लिप्त रहने की वजह से उन्हें उस अध्यात्मिक चेतना की प्राप्ति ही नहीं होती जिसकी मदत से वे अपने मन को इश्वर प्राप्ति में लगा सके। यह बिलकुल हम लोगो की ही बात हो रही है। हम लोग जब सत्संग में जाते है तो उस समय एक वेग में हम बहुत कुछ मन में ठान लेते हैं। मैं झूट नहीं बोलूँगा / रोज़ मंदिर जाऊंगा / महीने में एक बार तो ज़रूर किसी गरीब को दान करूँगा, etc etc. लेकिन जैसे ही सत्संग ख़त्म होता है और हम लोग घर वापस जाते है, हमारे सारे इरादे धरे के धरे रह जाते हैं। ज़िन्दगी भर के लिए उस संकल्प पर कायम रहना तो दूर, हम लोग एक दिन भी वैसा कुछ नहीं कर पाते। कभी आपने सोंचा है की ऐसा क्यों होता है। हम ईमानदारी के साथ संकल्प लेते है और उस पर कायम भी रहना चाहते है पर बहुत कोशिश करने पर भी वैसा कुछ भी नहीं कर पाते।
ऐसा इसलिए होता है की हम लोग एक वेग में आकर संकल्प तो ले लेते है पर यह नहीं समझते की हमारा मन अभी उतना परिपक्व नहीं हुआ है, अभी उसमे उतनी शक्ति नहीं है की वो इतना सब कुछ निभा ले। बिना इस बात को जाने हम बस संकल्प पे संकल्प लेते रहते हैं और कई सालो बाद बहुत बुरा लगता है की हमारी ज़िन्दगी के इतने साल निकल गए और हम जहाँ पहले थे आज भी वही के वही हैं। इसीलिए श्री कृष्ण कहते हैं की पहले आपने मन में वो अध्यात्मिक चेतना को आने दो जो आप में इश्वर भक्ति को जगाएगी, उसके बाद ही अध्यात्म में आगे बढ़ पाना संभव हो पायेगा।

अध्यात्मिक चेतना कैसे लायी जा सकती है उसके बारे में हम पिछले कुछ अंक में जान चुके है। कर्म योग से ही वो संभव है। आगे श्री कृष्ण कहते की वेद सुख/विषय-वस्तु की तीन अवस्था के बारे में बात करते हैं। वेदों में कई कर्मकांड का उल्लेख हैं जिनको विधि पूर्वक किया जाये तो कई सुख को भोगा जा सकता है। स्वर्ग और उससे भी बड़े ब्रह्मलोक के सुख-भोग की विधियाँ बताई गयी हैं वेदों में। लेकिन श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं की इन सुख-भोग में भटकने की बजाये अध्यात्मिक चेतना में लीन रह कर राग-द्वेष से परे रह कर प्राप्ति और संग्रहण से मुक्त रहना चाहिए। यहाँ पर सवाल आता है की अगर स्वर्ग या फिर सांसारिक सुख-भोग अगर त्याग देंगे तो जीना कितना मुश्किल हो जायेगा। और फिर अगर यह सुख-भोग इतने ही ख़राब हैं तो वेदों में इनके बारे में लिखा ही क्यों है। वेदों में उनके बारे में इसलिए लिखा है की आपको वैदिक कर्म के फल के बारे पता तो होना ही चाहिए। आप किसी को दान करेंगे तो आपको यह तो पता होना ही चाहिए की इसका क्या फल मिलेगा। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है की आप उसी में लिप्त हो जाये। रही बात की जीना मुश्किल हो जायेगा तो यह समझ ले की सुख-भोग त्यागने से यह मतलब नहीं है की आप अपनी ज़रूरत को पूरा करना ही छोड़ दे। अच्छे घर में रहना, आने जाने की सुविधा के लिए गाड़ी होना या फिर खाने पिने के लिए अच्छे पकवान होना, अपने परिवार और अपनी सुरक्षा के लिए इतना धन इक्कट्ठा करना के आगे ज़रूरत पड़ने पर काम आ सके, इन सब में कोई बात गलत नहीं है। यह सब तो आपकी ज़रूरत है और उनको तो पूरा करना ही पड़ेगा। लेकिन ज़रूरत पूरी होने पर भी अँधा-धुंध पैसे कमाना, इश्वर प्राप्ति की कोशिश ही नहीं करना, बस वासना और सुख-भोग में लगे रहना ज़रूर गलत है। और अगर इस तरह सांसारिक सुख के पीछे भागते रहेंगे तो कभी वो अध्यात्मिक चेतना नहीं आ पायेगी जिसके बारे में श्री कृष्ण अर्जुन को बता रहे हैं। उसके लिए पूरा मन लगा कर कोशिश करनी पड़ेगी। ज़रूरत और भोग में फर्क करना सीखना पड़ेगा। आज के समय में किसी भी समय कोई पैसे की दिक्कत आ सकती है इसलिए खूब पैसा होना गलत नहीं है लेकिन उसकी भी एक सीमा होती है। अरबो रुपये होने पर भी पैसे के पीछे भागना, खाने पिने में सात्विक भोजन की कमी होना, पूरा समय बस इसी सोंच में लगे रहना की आज ऐसा क्या किया जाये की मज़ा आ जाये, इस फिल्म में चले या उस पार्टी में जाये। इश्वर प्राप्ति में थोडा समय भी न लगाना तो ज़रूर गलत है। पार्टी में जाना, फिल्म देखना कोई गलत नहीं है लेकिन इश्वर प्राप्ति भी तो ज़रूरी है, उसके लिए भी तो मन में थोड़ी जगह बना कर रखिये।

आगे श्री कृष्ण कहते है की इन सब सुख-भोग से ज्यादा सुख इश्वर प्राप्ति में आता है। यह सांसारिक सुख तो सिर्फ एक गागर के समान है, इश्वर प्राप्ति तो पूरी झील के समान है। लेकिन यह बात सिर्फ पढ़ लेने पर समझ में नहीं आएगी। इसके लिए ही श्री कृष्ण अध्यात्मिक चेतना की बात करते हैं और कहते हैं की जब तक भोग में लगे रहोगे तब तक इन बातो का महत्व नहीं पता लगेगा। हमेशा यही लगता रहेगा की यह सब बेकार की बाते है, ज़िन्दगी जीने के लिए होती है उसे पुरे उत्साह के साथ जिनी चाहिए, यह अध्यात्म तो बूढ़े लोगो के लिए है। जवान लोगो को शादी, परिवार, नौकरी, व्यापार पर ध्यान देना चाहिए। जब तक भोग वासना में लिप्त रहोगे यही सब बाते मन में आएँगी। क्या परिवार, व्यापार/नौकरी के रहते इश्वर प्राप्ति के लिए थोडा समय भी नहीं निकाल सकते। क्या थोडा सा दान कर दिया और हो गया। बस इतना ही हो पाता है हमसे इश्वर के लिए। दान पुण्य नहीं भी करोगे तो चलेगा पर मन को काबू में करना ज़रूरी है। कई लोग इसी आस में रहते है की मरने तक खूब कमाओ और जब ज़िन्दगी के कुछ आखरी साल बचे हो तो अपनी सम्पति से आधा दान करदो। लेकिन भक्तजनों इस से कुछ नहीं होने वाला है। दान या दुसरे इसी तरह के वैदिक कर्म से इश्वर प्राप्ति नहीं होती और हमारा लक्ष्य इश्वर प्राप्ति है।

रही बात की अध्यात्म वगैरह तो बूढ़े लोगो के लिए है। तो मैं आपको बता दू की भगवत गीता में आगे योग पर भी कुछ श्लोक आयेंगे जिसमे श्री कृष्ण योग के बारे में अर्जुन को बताते हैं। और अगर जवान रहते योग और मन को काबू में करना शुरू नहीं किया तो बूढ़े हो कर तो कुछ भी नहीं कर पाएंगे। अध्यात्म तो एक सपना बन कर ही रह जायेगा। प्राणायाम करना तो दूर की बात है, सांस लेने में ही तकलीफ होगी बुढ़ापे में तो फिर योग कहाँ से कर पाएंगे। अगर कोई जवान लड़का राम का नाम ले ले तो लोग उससे पूछते हैं की बूढ़े की तरह क्यों राम राम कर रहे हो. काम धाम करो यह क्या पागल की तरह राम राम कर रहे हो. लेकिन वे लोग यह भूल जाते हैं की बुढ़ापे में जब आपने बत्तीस दांत ही गिर जायेंगे और अपनी औलाद का नाम लेना ही मुश्किल हो जायेगा तो राम नाम कहाँ से लोगे. आज कई लोग योग की शक्ति को पहचान कर जवानी से ही योग करते हैं और अपने बच्चो को भी सिखाते हैं, तो क्या वे लोग पागल है, क्या वे लोग अपने नौकरी/व्यापार में तरक्की नहीं करते। क्या उन्होंने जीना छोड़ दिया। अगर आपने उन भोगी लोगो की बातो में आकर अपनी जवानी भोग और बेकार के कामो में लगा दी तो बुढ़ापे में बहुत पछतायेंगे। इस विषय पर विस्तार से चर्चा करेंगे जब श्री कृष्ण के योग पर कहे गए श्लोक आयेंगे।

कुछ खास बाते याद रखिये। अध्यात्म का कोई भी काम एक दम से शुरू न करे। एक दम से दान, मन को काबू में करना, या फिर कोई और अध्यात्मिक काम न करे। छोटी छोटी कोशिश करना शुरू करे और धीरे धीरे कुछ साल का समय ले इन सब कामो को करने के लिए। योग से शुरुवात करना सबसे सुरक्षित रहता है क्योंकि दान वगैरह में कई लोग भावना में बहकर अपना सब कुछ गवा बैठते हैं। या फिर जोश में आकर बिना होश के मन को काबू में करने के चक्कर में अपना नुकसान कर बैठते हैं। इसलिए छोटी छोटी कोशिश ही करे।

अगले अंक में कुछ और श्लोक की चर्चा करेंगे।

जय श्री कृष्ण !!!

2 comments:

  1. One reason of staying away from spirituality in today's time is that we have always read in purans that whoever was spiritual had to bear sorrow throughout his life. We have never heard that someone very spiritual was ever happy in his life. Why is it so ? and if sorrow is the result that one would get then why should one be spiritual ?

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  2. Reply to the above question :

    Dear,
    Many people think this way but few things need to be corrected:
    1. Information
    2. Expectation
    3. Perception

    Your information is wrong because very few people are there who suffered in order to stick to spiritual living. There have been lots of people who lived normal life and yet were able to stick to spirituality. Take example of Vidur ji, father of lord Ram king Dashrath, Yudhistra, Bhim, etc etc. There are many such people who very spiritual and yet lead a king size life or atleast a normal life. They had similar sorrow and happiness as we all have. Nothing extra.

    Your Expectation is wrong because spirituality doesn’t mean that your past sins will be forgiven and the moment you adopt spiritual life you will be happy. It doesn’t work this way. In any case you have to bear the fruit of your past sins. That is why you see people who were spiritual lead a miserable life.

    Your perception is wrong because spirituality means oneness with God. Materialistic wealth is inferior to it. We see those characters from our perception which is contaminated with material desires. According to our understanding one is unhappy if he is not wealthy, but those great souls were happy is giving up their material desire for God. Those Rishis willingly lead that kind of life and were happier than what we are. It’s only our perception which makes us feel that way.

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