Tuesday, August 17, 2010

Geeta chapter - 2.13

भक्तजनों इस श्लोक को आपने कई बार सुना होगा. आज सिर्फ इस एक श्लोक पर चर्चा करेंगे

कर्मन्येवाधिकरास्ते माँ फलेषु कदाचन
माँ कर्म्फल्हेतुर्भुर माँ ते संगोस्त्वकर्मानी !!!
MEANING : तुम्हे अपने सारे कर्म करने का अधिकार है लेकिन उनके फल पर कोई अधिकार नहीं. कभी भी कर्म के फल से प्रेरित होकर कोई भी कर्म नहीं करना चाहिए और ही किसी मोह की वजह से किसी कर्त्तव्य को करने से मना करना चाहिए.

श्री कृष्ण कह रहे हैं की हमे सारे कर्म करने की आज़ादी होती है लेकिन उनके फल पर नहीं इसलिए फल को हमेशा इश्वर की मर्ज़ी पर छोड़ देना चाहिए. उस कर्म का कोई भी फल हो, उस फल को इश्वर की मर्ज़ी समझकर स्वीकार लेना चाहिए. इस तरह हम उस कर्म के बंधन से मुक्त हो जाते हैं.
श्री कृष्ण आगे कहते हैं की हमे कभी भी कर्म के फल से प्रेरित होकर कर्म नहीं करना चाहिए और ही किसी कर्म को करने का कारण उस कर्म का फल होना चाहिए. अगर वो कर्म आपका फ़र्ज़ है तो उस कर्म को सिर्फ इसलिए नहीं त्यागना चाहिए की उसका फल आपकी इच्छा के अनुसार नहीं है. फल कभी भी कर्म को करने या करने का कारण नहीं होना चाहिए.

इस बात को मई एक उधाहरण से समझाता हु.

हम भोजन करते हैं. हमारा फ़र्ज़ है की हम हमारे शरीर को स्वस्थ रखे. अच्छा भोजन अच्छे स्वस्थ्य की कुंजी है. हम भोजन अगर हमारा फ़र्ज़ समझ कर भी करे तो भी हमे भोजन से स्वाद ज़रूर आएगा. कहने का मतलब है की अगर कर्म फ़र्ज़ समझ कर करोगे तो भी उसका फल आपको मिलेगा ही. इसलिए फल की चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं.

यहाँ पर इस उधाहरण में कुछ बातो को इस तरह से समझिये.

हमारा फ़र्ज़ : शरीर को स्वस्थ रखना.
उसके लिए कौन सा कर्म करना है : अच्छा और सात्विक भोजन करना.
इस कर्म का क्या फल है : उस भोजन से मिलने वाला स्वाद.

ऊपर दिए गए कर्म में प्रकृति का क्या नियम है :

हमे हमारे शरीर के स्वस्थ्य के लिए तरह-तरह के भोजन करने होते हैं ताकि हमारे शरीर को पोषण मिल सके. कभी स्वादिष्ट भोजन तो कभी बे-स्वाद भोजन करना पड़ता है. कभी कभी तो करेले का रस भी पीना पड़ता है लेकिन उस से शरीर को बहुत फाईदा होता है. फल(स्वाद) चाहे अच्छा हो या बुरा लेकिन फ़र्ज़ के लिए करना पड़ता है.

जब हमारा लक्ष्य फ़र्ज़ निभाना होता है तो हमारे कर्म करने का क्या तरीका होता है :

हम खाने में ज्यादा मसाला/तेल वगैरह का इस्तेमाल नहीं करते, यह जानते हुए की इस से स्वाद कम हो जायेगा लेकिन फिर भी हम स्वाद की चिंता किये बिना सिर्फ अच्छे भोजन पर ही धयान देते हैं. बे-स्वाद चीजो से भागने की बजाई हम उसे सेहन करते हैं. इस बात को मानते हैं की यह सब तो खाना ही पड़ेगा अगर अच्छा स्वस्थ चाहिए तो. मन का इरादा पक्का होता है. कर्म करना है मतलब करना है, चाहे कुछ भी सहना पड़े.

इसका नतीजा क्या निकलता है :

नतीजतन हमारा स्वस्थ्य अच्छा होता है. हम भूक लगने पर ही खाना खाते है इसलिए बे-स्वाद खाना भी स्वादिष्ट लगता है. स्वाद या बे-स्वाद जैसा कुछ नहीं बचता.

जब कर्म करने का कारण उस कर्म का फल होता है तो हमारे कर्म करने का क्या तरीका होता है :

हम स्वस्थ्य से ज्यादा स्वाद को प्राथमिकता देते हैं. खाने में ज्यादा मीठा, मसालेदार खाना होता है. भूक लगे लगे, लेकिन अगर कोई स्वादिष्ट व्यंजन हमारे सामने जाये तो हम खाना शुरू कर देते हैं. यह जानते हुए कीइस तरह का खाना हमारे स्वस्थ्य के लिए नुकसान दायक है लेकिन हम स्वाद के एक तरह से गुलाम हो जाते हैं और बस इस तरह का खाना ही खाते रहते हैं. एक तरह से फ़र्ज़ निभाने की इच्छा शक्ति ही नहीं रहती.

इसका नतीजा क्या निकलता है :

हम धीरे धीरे स्वाद के लिए इतने बेचैन होने लगते हैं की हमे यह एहसास ही नहीं होता की हम कितना गलत खानाखाने लग गए हैं. बेचैनी इतनी बढ़ने लग जाती है की हम सिर्फ स्वादिष्ट खाने से संतुष्ट नहीं होते, हमे कुछ और चाहिए होता है, धीरे धीरे शराब, वगैरह पीने लग जाते हैं. हमे पता ही नहीं चलता है की कब हमने हमारी ही कब्र बना दी.


ऊपर दिए हुए उधाहरण में सच्चाई है, यह सिर्फ एक उधाहरण नहीं है. इसी तरह से हम हमारे सरे कर्म निभाते हैं. फ़र्ज़ से ज्यादा कर्म के फल पर हमारा ध्यान होता है. फर्क सिर्फ इतना है की यह उधाहरण आसानी से समझमे जाता है जबकि हमारे बहुत सरे कर्म समझमे नहीं आते इसलिए हमे पता भी नहीं चलता है की हम क्या गलत कररहे हैं. क्यों कर्म के फल पर ध्यान देने को भोग मना है वेदों में, क्योंकि ऐसा करके हम आखिर में भोग ही करते हैं.

कर्म फल को इश्वर को समर्पित करने का एक फ़ायदा और भी है की हमारे सरे पाप जो अनजाने में हुए हैं, वोह हमेभुगतने नहीं पड़ते. जबकि नियम यह है चाहे आपसे कोई पाप अनजाने में हुआ हो जैसे जब आप चलते हैं औरअगर कोई जीव-जंतु आपके पैरो के नीचे आकार मर जाये तो उसका पाप भी आपको भुगतना पड़ेगा. इस तरहहमसे कई पाप रोज़ होते हैं जिन्हें हमे भुगतना पड़ेगा लेकिन अगर हम हमारे कर्म को इश्वर को समर्पित करदे तोउस से बच सकते हैं. इस बारे में मनु स्मिरिती में विस्तार से लिखा गया है जिसकी चर्चा हम आगे कभी करेंगे.

खैर अगर आपको कर्म योगी बनना है तो फल की इच्छा को सबसे पहले त्यागना होगा. यह कैसे करना है, उसकेबारे में हम अगले अंक में चर्चा करेंगे. यह बहुत आसन नहीं है तो बहुत मुश्किल भी नहीं है. बस इरादा पक्का होनाचाहिए.

जय श्री कृष्ण !!!

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