Wednesday, July 7, 2010

Geeta chapter - 2.7

भक्तजनों कर्म के सिद्धांत को समझने के लिए जिस पुश्त्भूमि की ज़रूरत थी वोह हमने पिछले अंक में तैयार कर दी। अब बात करते हैं उन कर्म के सिद्धांतो के बारे में जिनका लाभ अटल होता है।

स्वधार्मापी चावेक्ष्य न विकाम्पितुमर्हासी
धर्म्याद्धि उद्धे च्रेयोंयत क्षत्रियस्य न विद्ध्यते !!!
MEANING : क्षत्रिय को धर्मं की रक्षा करने से नहीं चूकना चाहिएऔर धर्मं की रक्षा के लिए युद्ध भूमि से अच्छा मौका क्षत्रिय को नहीं मिलेगा

यद्द्रच्च्या चोपन्नम स्वर्गद्वारम पवुतम
सुखिनः क्षत्रियः पर्थ लभन्ते युद्धामिद्रषम !!!
MEANING : हे अर्जुन खुश किस्मत होते हैं वोह योद्धा जिन्हें ऐसा युद्ध लड़ने को मिलता है जो उसके चाहते हुए भी करना पड़ रहा होयह सीधे स्वर्ग का द्वार है

अथ चेत्वमिम धर्मय संग्रामं न करिष्यसि
ततः स्वधर्मं कीर्ति च हित्वा पपम्वाप्यासी !!!
MEANING : अगर तुम धर्मं की रक्षा के लिए इस युद्ध को नहीं लड़ते हो और अपने प्राकृतिक कर्त्तव्य से विमुख होते हो तो तुम्हे इस पाप कर्म का दंड भोगना पड़ेगा

अकीर्ति चापि भूतानि कथ्यिशंती तेव्यायम
सम्भावितस्य चकिर्तिर्मरानद अतिरिच्यते !!!
MEANING : सारे लोग तुम्हारी बुजदिली की चर्चा करेंगे और किसी भी सम्मानीय व्यक्ति के लिए बेईज्ज़ती मृत्यु से ज्यादा ख़राब है

भयाद रानौपरानतम मस्यनते त्वां महारथः
येषाम च तवं बहुमते भूत्वा यस्ससी लाघवं !!!
MEANING : जो महायोद्धा इस रणभूमि पर है वे यह समझेंगे की तुम दर कर युद्ध भूमि से भाग गए होजो तुम्हे महान समझते है उनकी नजरो में तुम गिर जाओगे

अवाच्यवदम्चा बहूँ वदिष्यन्ति तवाहिताः
निन्दंत्स्त्व समर्थियम ततो दुखंत्रं नु किम !!!
MEANING : तुम्हारे क्षत्रु तुम्हारे बारे में बहुत गलत बातें करेंगेइस से ज्यादा तकलीफ दायक क्या हो सकता है

हतो व प्रप्यासी स्वर्गम जित्व व भोक्ष्यसे महिम
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धे क्रत्निशयाह
MEANING : हे अर्जुन अगर तुम मृत्यु को प्राप्त होते हो तो स्वर्ग में जाओगे और अगर विजयी होते हो तो धरती पर राज करोगे, इसलिए अर्जुन उठो और युद्ध करो


भक्तजनों इन श्लोकों में श्री कृष्ण अर्जुन को उनके प्राकृतिक कर्त्तव्य के बारे में समझा रहे हैं। ध्यान देने लायक बात यह है की युद्ध करना और धर्म की रक्षा के लिए अपने प्रियजन को मरना भी कर्त्तव्य की श्रेणी में ही आता है। श्री कृष्ण यह कह रहे है की युद्ध करोगे तो स्वर्ग जाओगे और नहीं करने पर पाप के भागीदार बनोगे। वे अर्जुन को यह भी बताते हैं की धर्म के लिए किये हुए कर्म में दोनों तरफ जीत ही होती है। हार किसी भी सूरत में नहीं होती। वे बताते है की अगर युद्ध करते हुए मारे भी जाते हो तो भी स्वर्ग जाओगे और अगर जित जाते हो तो धरती पर राज करोगे। दोनों तरफ जीत ही है इसलिए हे अर्जुन धर्मं कार्य से विमुख मत हो। उल्टा वे यह भी बताते है की अगर कर्त्तव्य से विमिख होते हो तो पाप लगेगा।

यह एक बड़ी दिलचस्प बात है भक्तजनों। आज के युग में इस बात को जो समझ जाये उसका बेडा पार समझो। यहाँ पर ध्यान देने लायक बात यह है की क्योंकि श्री कृष्ण खुद विष्णु अवतार हैं इसलिए उन्हें यह मालूम है की कर्त्तव्य के लिए अगर इंसान दुःख भी उठाता है तो भी आगे चलकर उसे सुख ही मिलने वाला है, फिर चाहे अगले जन्म में ही क्यों न हो, धर्म कार्य कभी व्यर्थ नहीं जाता। लेकिन हम आम इन्सान की दृष्टि खंडित होती है मतलब सीमित होती है। हमारे लिए तो अगर कोई मर जाये मतलब उसका नुकसान हो गया, इस से आगे का हम सोंच ही नहीं पते। अगर किसी की मदत की और बदले में उससे हमे कुछ मिला नहीं तो हम समझते है की हम ठगा गए। हम कभी यह नहीं समझ पाते की धर्म कार्य खुद आपको बहुत कुछ देगा, यह तो श्री कृष्ण थे जो अर्जुन से यह कह रहे थे की मर भी जाओगे तो फायदे में रहोगे, वर्ना हम आम लोग तो यही कहते की अर्जुन बेवकूफ थे जो बिना वजह युद्ध करने खड़े हो गए और बे मौत मारे गए। हम आम इंसान इसीलिए आम ही रह जाते है। आज अधर्म का बोलबाला भी इसीलिए है की हमारे पास वो ज्ञान ही नहीं बचा है, मृत्यु हो गयी मतलब सब ख़त्म, गरीबी अभिशाप है, किसी की मदत करना बेकार है क्योंकि आगे चलकर वोह हमारा एहसान नहीं मानेगा, etc etc....
कभी इन बातो के आगे की सोंच ही नहीं पाते। हम भूल जाते है की जिस डर की वजह से हम अच्छे कार्य करने से हिचकिचा रहे हैं वही हमारे लिए कल दुःख का कारण बन जायेंगे।

इसलिए भक्तजनों कर्त्तव्य निभाना सबसे ज़रूरी कार्य होता है, फिर चाहे उसके लिए कुछ भी करना पड़ जाये। कर्त्तव्य को पहचानना भी ज़रूरी है, हर काम कर्त्तव्य नहीं होता।
अगर कर्त्तव्य निभाते हुए दुःख उठाना पड़ रहा है तो यह मान कर चलिए की ये दुःख भी आगे चल कर सुख में तब्दील हो जायेगा।
अगर कभी आपकी ज़िन्दगी के अंत वक़्त में आपको यह लगे की मैंने सारी ज़िन्दगी लोगों का भला किया लेकिन मैं हमेशा दुखी ही रहा, बहुत दुःख सहना पड़ा है। तो यह ज़रूर याद रखियेगा की धर्म कार्य कभी व्यर्थ नहीं जाता, फिछले कर्म के फल की वजह से उसमे देरी भले ही हो जाती है लेकिन वो कभी चुकता नहीं।
कर्त्तव्य निभाने से यह तात्पर्य नहीं है की आप हमेशा दूसरों की मदत करने के लिए दुःख उठाते रहे। आपका सबसे पहला कर्त्तव्य है अपने आपको सुखी रखना (ईमानदारी की कमाई से) और उसके बाद अगर दुसरो के लिए वक़्त है और पैसा है तो उनकी मदत कीजिये।
यह ज़रूरी नहीं की दुसरो की मदत आपको करनी ही है। जो लोग दुखी है वे अपने कर्मो के फल भोग रहे हैं। उसके जिम्मेदार आप नहीं है।
शास्त्रों से यह जानिए की आपके कर्त्तव्य क्या हैं और उन्हें निभाने से मत चूकिए वरना जैसा श्री कृष्ण ने कहा है की कर्त्तव्य से चुकने पर सजा मिलती है। दुःख भोगना पड़ता है।


अगले अंक में जानेगे की कर्म करते हुए कैसे उसके फल से बच सकते है।

जय श्री कृष्ण !!!


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