कर्म के सिद्धांत को समझने के लिए हमे कुछ बातों की जानकारी होना ज़रूरी है। निम्न लिखी बातों पर हम पहले चर्चा करेंगे और उसके बाद ही हम कर्म के सिद्धांत को सही तरीके से समझ सकेंगे।
- आज के ज़माने में अध्यातिम्क होना बहुत कठिन है। नौकरी, परिवार, यार-दोस्त के साथ ही समय ऐसा कटता है की पूजा पाठ के लिए समय ही नहीं रहता। यह एक मिथ्या धारणा है की अध्यातिम्क होने पर आपको सुख-सुविधा का त्याग करना पड़ेगा। पहले हम इस पर चर्चा करेंगे।
- दूसरी बात है की जब कर्म के बारे में बात करेंगे तो संस्कार पर चर्चा करना ज़रूरी होगी क्योंकि संस्कार को समझे बिना कर्म को नहीं समझ पाएंगे।
- और जब संस्कार को समझना है तो मन को समझना बहुत ज़रूरी है, इसके बिना कुछ समझ नहीं आने वाला।
सबसे पहले तो अध्यात्म के प्रति जो आपके मन में मिथ्या धारणा है उसे हटाना पड़ेगा। ज़्यादातर लोग अध्यात्मिक होने से इसीलिए घबराते हैं की उन्हें लगता है ऐसा करने पर परिवार छोड़ना पड़ेगा, पार्टियों में नहीं जा सकेंगे. तरक्की नहीं कर पाएंगे. दुसरे लोग आगे निकल जायेंगे और हम भजन ही गाते रह जायेंगे. कोई विदेश में settle हो जायेगा, कोई अपनी कंपनी खोल लेगा और हम भावना में बहकर अपना सब कुछ लुटा देंगे. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम अध्यात्म के बारे में आजकल के TV serials से सीखते हैं। सही अर्थ समझने की कोशिश ही नहीं करते। सबसे पहले अपने मन में यह बात बैठा लीजिये की अध्यात्म कीचड़ में कमल की तरह होता है। कीचड़ से दूर भागने की कोई ज़रूरत नहीं होती है बल्कि कीचड़ में रेहते हुए भी कीचड़ से दूर रहने की कला सिखने की ज़रूरत है जैसा की कमल करता है। आपको अपने परिवार को त्याग कर या गाड़ी बंगला को त्यागकर जंगल में नहीं जाना है। इन सबका अपनी सुख सुविधा के लिए खूब इस्तेमाल कीजिये, इस से कोई नुकसान नहीं होगा। बस ध्यान यह रखना है की जब आखरी वक़्त आये तो इन सबको छोड़ने में तकलीफ नहीं होनी चाहिए। अपने मन को बस इस लायक बना लीजिये और फिर देखिये आपको मोक्ष मिलना पक्का है। आप लोगों में से कितने लोग होंगे जिन्होंने महाभारत को पूरी पढ़ी होगी या भगवत गीता पढ़ी होगी। आप लोगों में से कितने लोगों के घरों में रामायण जी की किताब रखी होगी। दुनिया भर का सामान इकठ्ठा करने की फुर्सत होती है हमारे पास लेकिन अध्यात्म के प्रति कोई रूचि नहीं। यह मैं इसलिए कह रहा हूँ की कर्म के सिद्धांत पर चर्चा से पहले अपने सारे मिथ्या ख्याल मन से निकाल कर मन साफ़ रखकर समझने की कोशिश करें। अगर यह भी नहीं कर पाए तो फिर तो भगवान ही मालिक है आपका।
अब बात करते हैं मन पर और उसके बाद संस्कार पर।
मन क्या है। मैंने पहले चर्चा की थी की जो कुछ भी हम सोंचते हैं या हमारी सोंच जैसी भी होती है वोह हमारे कई जन्मों की सोंच का सार होती है. मन का पहले से कोई गुण नहीं होता है। इस बात को समझने के लिए मैं एक सच्ची गटना का उधाहरण देता हूँ।
जब world war-II हो रही थी तब कई अणु बम इस्तेमाल होते थे। उनकी घातक किरणों से कई तरह की बीमारियाँ होने लग गयी थी। तब Europe के निवासियों में यह धारणा हो गयी थी की ऐसी घातक किरणों से बचने के लिए अगर सूअर के मल (shit of pig) का लेप अगर अपनी त्वचा पर किया जाये तो उन किरणों से काफी हद तक बचा जा सकता है। लोगों ने कई साल तक ऐसा ही किया। कई साल बाद जब युद्ध ख़त्म हुआ और economy फिर से उभरने लगी तो कई कंपनियों ने अपना सामान बेचना शुरू किया। लेकिन आश्चर्य की बात थी की साबुन की बिक्री उतनी नहीं हो रही थी जितने की उम्मीद थी। कंपनियों ने survey करवाया तो एक और आश्चर्य सामने आया। कई लोगों का कहना था की उन्हें इन साबुन से बदबू आती है। कंपनियों को जब पता चला की युद्ध के समय बहुत से लोग सूअर के मल का लेप करते थे तब जाकर उन्हें सारा माजरा समझमे आया। असल में लोगों को शुरू में बहुत तकलीफ होती थी मल का लेप लगाने में लेकिन समय के साथ उन्हें इसकी आदत पड़ गयी। साबुन तो उन्होंने कई सालों से इस्तेमाल ही नहीं किया था और कुछ लोगों ने तो किसी भी तरह के इतर या ऐसी चीज़ का इस्तेमाल नहीं किया था। इसकी उन्हें आदत ही नहीं थी और जब उन्हें एकदम से साबुन दिया गया तो उन्हें वह बदबूदार लगा।
भक्तजनों इस से आपको क्या समझ में आता है। इस से यह बात साफ़ हो जाती है की मन को वही चीज़ अच्छी लगती है जिसकी उसे आदत होती है फिर चाहे वोह सूअर का मल ही क्यों न हो। और जिसकी उसे आदत नहीं होती वह उसे पसंद नहीं करता है फिर वह चाहे फूल की खुश्बू ही क्यों न हो। इसीलिए सारे मनुष्यों की पसंद एक सी नहीं होती। अगर गुलाब का फूल सबसे अच्छा है तो फिर वह सबको अच्छा लग्न चाहिए लेकिन ऐसा नहीं होता। किसी गुलाब पसंद होता है तो किसी को मोगरे का फूल। जिसने जैसे की आदत डाली उसकी वैसी पसंद। अच्छा या बुरा जैसा कुछ नहीं होता है। आप कहेंगे की हमे कई बार कोई चीज़ ऐसी पसंद आती है जिसे हमने पहले कभी नहीं देखा होता है। ऐसा कैसे होता है। बात सही है, असल में होता यह है की हमे वही चीज़ पहली बार में पसंद आती है जिस से मिलती जुलती कोई चीज़ हमे पहले से ही पसंद है। जैसे अगर आपको गुलाब पसंद है और आपने अगर मोगरे के फूल को पहली बार सुंघा तो बहुत संभव है की वह आपको पसंद ही आएगा जब तक की उसकी किसी खास बात आपको पसंद न हो।
भक्तजनों इस से भी बड़ा उधाहरण मेरे अपना है। मैं आज से 10-11 साल पहले तक अंडे खाता था। लेकिन उसके बाद अध्यात्मिक कारणों से मैंने खाना छोड़ दिया। आज यह हालत है की अगर मुझे अंडे की smell आ जाये तो उबकाई(vomit) आने लगती है। जिसे मैं इतना पसंद करता था आज उसी से मुझे इतनी नफरत हो गयी है। यही मन का खेल है।
भक्तजनों अब आपको मन का खेल समझमे आ गया होगा। अच्छा या बुरा जैसा कुछ भी नहीं होता है इस दुनिया में। सब मन का खेल है। हम चाहे तो जो कुछ हमारे पास है उसी से खुश रह सकते है लेकिन लालच और भोग की वजह से ऐसी चीजों को पाने की इच्छा रखते हैं की उसके बिना मन बेचैन रहने लगता है। पुराणों में ऐसे कई प्रसंग आते हैं जहाँ पर आम इन्सान महारिषियों से कुछ मांगने जाते हैं और वोह उनपर हँसते हैं। उन्हें इच्छाओं के फेर में न पड़ने की सलाह देते हैं। क्योंकि हमारे जैसे आम इंसान के लिए कोई चीज़ बुरी हैं तो कोई अच्छी लेकिन वोह तो महा ज्ञानी हैं वोह यह अच्छी तरह जानते हैं की यह सब मन और लालच का खेल हैं। गुलाब हो या मोगरा, सोना हो या चांदी, swimming pool हो या समुद्र, अरे जिसकी आदत पड़ जाएगी वही चीज़ अच्छी लगने लग जाएगी तो फिर क्यों किसी खास चीज़ के पीछे पड़े हो। क्यों उसमे अपना समय बर्बाद कर रहे हो। क्यों उसके लिए इतनी तकलीफ उठा रहे हो। यही वे महा ज्ञानी ऋषि मुनि उन आम इंसानों को समझाने की कोशिश करते थे लेकिन कोई बिरला ही उसे समझ कर अपने खुद का कल्याण कर पता था बाकि सब तो इसी संसार के चक्र में पिसते रहते थे. इच्छाओं का खेल बड़ा गज़ब का है जनाब। खैर इच्छा के बारे में तो हम आगे के अंकों में चर्चा करेंगे जब कर्म की बातें होंगी तो इच्छा की भी जम कर चर्चा होगी। फ़िलहाल तो सिर्फ हम ऊपर लिखी उन तीन बातों पर ही चर्चा करेंगे।
अब बात करते हैं संस्कार पर।
संस्कार क्या है। वोह कैसे हमारे मन पर जमते हैं। उनके और हमारे कर्म का क्या सम्बन्ध है।
हमारी बहुत सी इच्छाएँ जो अधूरी रह गयी और हमारे कर्म के फल जो भुगतना बाकि हैं यह सब मिलकर संस्कार के रूप में हमारे एक जन्म से दुसरे जन्म तक हमारे साथ रहते हैं। जैसे जैसे हमारी कुछ इच्छाएं पूरी होती हैं और नयी इच्छाएं मन में पैदा होती हैं वैसे वैसे नए संस्कार बनते चले जाते हैं। जब तक संस्कार रहेंगे तब तक मोक्ष असंभव है। क्योंकि हम परमात्मा के अंश हैं इसलिए हम में वोह ताकत होती है की हम हमारी सारी इच्छाएं पूरी कर लें। लेकिन कर्म के फल की वजह से वोह एक के बाद एक पूरी न होकर उसमे कई जन्मो का समय लग जाता है। इस बीच कई सारी नयी इच्छाएं मन में पैदा हो जाती हैं और यह चक्र ऐसे ही चलता रहता है। हमारे कुछ कर्म तो इतने नीच कर्म होते हैं की मनुष्य योनी से हमे जानवर की योनी लेकर एक दर्दनाक ज़िन्दगी जीकर उन कर्म फल को भुगतना पड़ता है। उसके बाद कहीं जाकर हम वापस मनुष्य योनी में जन्म ले पाते हैं। मनीषियों ने इसीलिए इस संसार को हेय, तुच्छ और निम्न कोटि का माना है। पता नहीं कौन सा कर्म हमे किस योनी में भिजवादे और हजारों-लाखों साल लग जाये फिर से मनुष्य योनी में आने के लिए। इसलिए जितनी जल्दी हो सके इस संसार को अलविदा कहकर मोक्ष की इच्छा रखनी चाहिए। और उसके लिए संस्कार से छुटकारा पाना होगा।
भक्तजनों अब आपको मन, संस्कार और अध्यात्म के बारे में अच्छी जानकारी हो गयी होगी। यह भी पता चल गया होगा की क्यों महाज्ञानी लोग संसार से मोह नहीं रखते थे। इसे तुच्छ क्यों मानते थे। सबसे बड़ा उधाहरण भगवान राम के छोटे भाई भरत जी का है। उन्होंने एक हिरन पाल रखा था. जिसे वे बहुत प्यार करते थे. जब उनका अंतिम समय आया तो उन्होंने शारीर त्यागने से पहले उस हिरन के बारे में सोंचा और इसका नतीजा यह निकला की उन्हें अगला जन्म हिरन के रूप में लेना पड़ा और उस के बाद ही वे मोक्ष प्राप्त कर पाए. जब भरत जी की ये दशा हो गयी तो आपकी और मेरी क्या होगी.
इसीलिए शास्त्रों में कहा गया है की मनुष्य को केवल मोक्ष की इच्छा रखनी चाहिए। बाकि सारी इच्छाएं नगण्य हैं।
इस अंक को पढने के बाद थोडा शांति से इसके बारे में सोंचियेगा। अध्यात्म के रहस्य हमारे आस-पास ही हैं। उन्हें जान ने के लिए अलग से गीता के ज़रूरत नहीं है। बस ईमानदारी से मन को टटोलने की हिम्मत होनी चाहिए। मेरे कई दोस्तों ने विश्व युद्ध की घटना जो मैंने ऊपर कही थी उसे पढ़ा था लेकिन कुछ लोगों को उसमे कुछ भी खास नहीं लगा कुछ ने सूअर की बात को लेकर विदेशी लोगों का मजाक उड़ाया लेकिन किसी ने भी उस घटना में छिपे मन के गुण के उस रहस्य को समझने की कोशिश नहीं करी। इसीलिए मैं हमेशा यह कहता हु की गीता के सारे उपदेश हमारे आस-पास ही हैं बस थोड़ी ईमानदारी से तलाशने की ज़रूरत है।
अगले अंक से श्लोकों पर चर्चा शुरू करेंगे।
जय श्री कृष्ण।
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