भक्तजनों आप कोई column miss न कर दे इसलिए मैं हर बार नंबर दे रहा हूँ।
चर्चा आगे बढ़ाते हैं और बात करतें हैं श्लोकों की।
सुख दुखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ
ततो युद्धाये युज्यस्व नैवं पापम्वाप्स्यासी !!!
MEANING : सुख दुःख, लाभ नुकसान, जीत हार में अपने को सम रखकर युद्ध करो। इस तरह तुम पाप से बच सकते हो।
एषा तेभिहिता संख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि !!!
MEANING : हे अर्जुन मैंने पहले तुमे आत्मा के विषय में बताया था। अब कर्म के विज्ञान को सुनो जिसमे फल की इच्छा के बिना किया हुआ कर्म तुम्हे वोह ज्ञान देगा जिस से तुम कर्म के बंधन से मुक्त हो जाओगे।
नेहाभिक्रम्नाशोस्ती प्रत्यवायो न विद्यते
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात !!!
MEANING : इस योग में कोशिश करने में कोई नुकसान नहीं है और न ही मिलने वाला फल किसी तरह से कमतर होता है। और तो और थोड़ी सि कोशिश भी अगर सही तरीके से की जाये तो मनुष्य बहुत बड़े नुकसान से बच सकता है।
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन
बहुशाखा ह्यानान्ताक्ष बुद्ध्योव्यव्सयिनाम !!!
MEANING : हे अर्जुन इस योग में मन पूरी तरह से अध्यात्मिक चेतना की और केन्द्रित हो जाता है जो सिर्फ एक ही लक्ष पर केन्द्रित रहता है। लेकिन वे लोग जिनका मन भोग वस्तुओं में लगा रहता है उनके लिए तो अनगिनत शाखाएं रहती हैं भटकने के लिए।
भक्तजनों कर्म के सिद्धांत के बारे में बड़े सरल तरीके से श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझाया है। कृपया यह न समझे की यह सब तो हमे पहले से ही मालूम है। कई संत लोगों ने यह बातें कही हैं। बल्कि यह समझिये की पूरी दुनिया में किसी और ग्रन्थ या किसी और मज़हब के किसी भी ग्रन्थ में यह विज्ञान नहीं मिलेगा। कर्म के यह सिद्धांत सिर्फ और सिर्फ भगवत गीता में कहे गए हैं। इसलिए भगवत गीता पर अटूट श्रद्धा रखिये। यह एक ऐसा ग्रन्थ है जो मनुष्य को अपने किसी पूर्व जन्म के फल स्वरुप ही पढने को मिल पता है।
चलिए बात करते हैं श्लोकों की। पहले श्लोक में श्री कृष्ण कह रहे हैं की अगर सम भाव रख कर कर्म किया जाये तो मनुष्य पाप से बच सकता है। इसका क्या मतलब है। तो क्या मैं सम भाव रखकर किसी की हत्या कर दू तो क्या मुझे उस कर्म का पाप नहीं लगेगा। पहली बात तो यह है की खुद श्री कृष्ण अर्जुन से हत्या करने को ही कह रहे हैं और इसका पूरा मतलब हमे अगले दो श्लोको में मिलता है।
पहली बात की सम भाव होना चाहिए और दूसरी बात की फल की इच्छा नहीं रखनी चाहिए। अगर फल की इच्छा नहीं रखोगे तो अपने आप सम भाव आ जायेगा। जीत हार, लाभ या नुकसान से कोई मतलब ही नहीं रह जायेगा। यह तो हम खुद जितने की, लाभ पाने की इच्छा रखते है इसलिए सम नहीं रह पते वरना तो इनका कोई महत्व नहीं है।
धर्म के लिए किया गया कर्म पाप मुक्त होता है क्योंकि उसे फ़र्ज़ समझ कर निभाया जाता है। उसमे अपना कोई फ़ायदा नहीं होता लेकिन अगर वही कर्म लालच में आकर किया जाये तो पाप लगता है। इसीलिए जब कोई चोर चोरी के लिए किसी की हत्या करता है तो पाप लगता है और वही जब कोई judge किसी को फंसी की सजा सुनाता है तो उसे पाप नहीं लगता क्योंकि वो उसका फ़र्ज़ है।
श्री कृष्ण आगे बताते है की फल की इच्छा न रखने से फल की गुणवत्ता में कोई फर्क नहीं आता लेकिन हम ज़रूर उस कर्म के बंधन से मुक्त हो जाते हैं। आगे वेह यह भी बताते हैं की अगर थोड़ी सी भी कोशिश सही तरीके से की जाये तो हम बहुत बड़े नुकसान से बच सकते हैं।
इस पर आगे और चर्चा करेंगे अगले अंक में।
जय श्री कृष्ण।
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